Book Title: Aadhunik kal me Ahimsa Tattva ke Upyojan ki Maryadaye
Author(s): Kaumudi Baldota
Publisher: Kaumudi Baldota

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Page 2
________________ अहिंसा पर अति विस्तार से अपनी कलम चलायी है । सोमदेवसूरिकृत 'यशस्तिलकचम्पू' जैसे अभिजात संस्कृत शैली का महाकाव्य भी तात्पर्य रूप में अहिंसा तत्त्व की ही पुष्टि करता है । विश्वशान्ति के लिए अहिंसा की आवश्यकता यद्यपि निर्विवाद है तथापि सद्य:कालीन परिस्थिति में अगर ‘तात्त्विक अहिंसा' को हम 'उपयोजित' करने लगे तो बहुतसी शंकाएँ एवम् मर्यादाएँ स्पष्ट होने लगत है । यह भी एक अजीब बात है कि जैसी जैसी विश्व में अधिकाधिक अशान्ति फैलने लगी है वैसी - वैसी बौद्धिक क्षेत्र में अहिंसाविषयक चर्चासत्र एवम् संगोष्ठियों का जोर-शोर से आयोजन हो रहा है । प्रस्तुत शोधनिबन्ध में आधुनिक काल के सन्दर्भ में अहिंसा के उपयोजन की मर्यादाओं पर विशेष बल देने का प्रयास किया है । जैन तत्त्वज्ञान का अहिंसाविषयक परिप्रेक्ष्य ध्यान में रखकर ही ये विचार प्रस्तुत किये हैं । इस शोधनिबन्ध में सात प्रमुख मुद्दों के आधार से चर्चा की है - (१) षट्जीवनिकाय-रक्षा अर्थात् पर्यावरण-संरक्षण (२) शाकाहार-मांसाहार : आदर्शवादी दृष्टिकोण और वस्तुस्थिति (३) वैचारिक अहिंसा अर्थात् अनेकान्तवाद (४) हिंसाधार व्यवसायों का निषेध (५) जैन तत्त्वज्ञान में कालचक्र और बढती दुष्प्रवृत्तियाँ (६) हिंसा के चार प्रकार (७) मानवजाति की प्रगति के लिए अनिवार्य हिंसा (१) षट्जीवनिकाय - रक्षा अर्थात पर्यावरण-संरक्षण : सबसे प्राचीन अर्धमागधी ग्रन्थ जो आचारांगसूत्र है उसका उपोद्घात ही पर्यावरण की ओर जागृति निर्माण करनेवाली सभी संवेदनाओं को समर्पित है । 'पर्यावरण' यह शब्द निःसंशय आधुनिक ही है । उस शब्द का साक्षात् प्रयोग तो जैन ग्रन्थों में नहीं पाया जाता फिर भी षट्जीवनिकाय का रक्षण भावार्थ रूप से पर्यावरण का रक्षण ही है । आचारांग के परवर्ती ग्रन्थों में भी विशेषतः दशवैकालिक ग्रन्थ में यह मुद्दा खास तौर पर अधोरेखित किया है । जैन अवधारणा के अनुसार पृथ्वी याने जमीन, अप् याने जल, तेज याने अग्नि और सभी ऊर्जास्रोत, वायु और वनस्पति की सभी जाति - प्रजातियाँ तथा हलनचलन करनेवाले सभी जीवजन्तु (कीडे-मकोडे से लेकर पञ्चेन्द्रिय मनुष्यतक) - ये छह जीवनिकाय याने जीवों के समूह हैं । इनमें से पहले पाँच स्थावर याने हलनचलन करनेवाले नहीं हैं । सामान्य रूप से इन पाँचों को जड महाभूत भी कहा जाता है लेकिन जैन दृष्टि से जमीन आदि पाँच, एक इन्द्रिय से युक्त स्थावर जीवों के समूह हैं । त्रस 2

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