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________________ कल्पमुक्कावल्यां प्रथम | व्याख्याने दशकल्प अधिकार // 22 // बाल्यादपि जिताक्षोऽसौ श्रावकः परमोऽभवत् // तपसा किंन साध्येत तपो हि निर्जर स्तरुः॥५०॥ विजयसेनभूपेन हतः कश्चिन्नरः कदा // अचौर श्रौर्यदोषेण संशयोऽपि च जीवहा // 51 // मृत्वाऽसा व्यन्तरीभूय विघाताय पुरस्य तु // भयदां रचयामास शिलामेकां महीयसीम् // 52 // वमन्तं रुधिर कृत्वा राजानं पादघाततः॥ पातयामास भूमौ तं हा सिंहासनत स्ततः // 53 // नागकेतु महाधीमांश्चिचिन्तेति निजे हृदि // कथं पश्याम्यहं ध्वंसजिनचैत्यस्य सर्वतः // 54 // प्रासादकूटमारुह्य शिला द] च पाणिना // फलमिव त्वराऽनेन तपःशक्ति गरीयसा // 55 // तत्तपश्शक्तितः सद्यो व्यन्तरोऽपि महा शिलाम् // संहृत्य पार्श्वमागत्य ननाम नागकेतुकम् // 56 // भूपालं शीघ्रमेवाथ चकार निरुपद्रवम् // अमरा अपि दासत्व म्भजन्तीह तपोवताम् // 57 // धर्मात्मा नागकेतुः स कदा पूजाञ्जिनेशितुः // कुर्वन् सर्पण दष्टोऽसा पुष्पान्तर्गतेन वै // 58 // अव्यग्रो भावनारूहो ना केतु महामतिः // दुर्लभ केवलज्ञानं प्रापानन्तसुखास्पदम् // 59 // प्रत्यक्षीभूय तस्मै च शासनस्य हि देवता // मुनिवेषं ददौ साऽपि विजहार यथासुखम् // 60 // नागकेतु कथां श्रुत्वा विचित्रां पुण्यवर्धिनीम् // तपसि चाष्टमे यत्ना भावतोत्र विधीयताम् // 61 // // इतिनागकेतुकथा // // 22
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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