________________ श्रीकल्प श्री समा पारि मुकावल्या // 433 // व्याख्या-यत्र नदी नित्योदका नित्यं प्रभूतनीरा तथा नित्यस्यन्दना निरन्तरजलप्रवाहवाहिनी नैव तत्र कल्पते सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च सक्रोशं योजनं भिक्षाचर्यया गन्तुं प्रतिनिवर्तितुं // 11 // मू-पा-एरावई कुणालाए जत्थ चक्किया सिया पगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवं चक्किया एवं णं कप्पइ सव्वओ समंता सक्कोस जोयणं भिक्खायरियाए गंतु पडिनियत्तए // 3 // 12 // व्याख्या-यथा ऐरावती नाम्नी नदी कुणालायां पुर्या सदा द्विक्रोशवाहिनी तादृशीं नदीं लङ्कयितं कल्प्या न्यूनजलत्वात्-यत्र एवं कर्तुं शक्नुयात् किं तदित्याह. यदि-एकं चरणं जले कृत्वा जलान्तः प्रक्षिप्य एक चरण स्थले कृत्वा जलादुपरि आकाशे कृत्वा अनया रीत्या गन्तुं शक्नुयात्. एवं सति कल्पते सर्वतः समन्तात् सक्रोशं योजनं गन्तुं प्रतिनिवर्तितुम् // 12 // मू-पा-एवञ्च नो चक्किया एवं से नो कप्पइ सबओ समंता सक्कोसं जोयणं गंतु पडिनियत्तए // 13 // व्याख्या-पूर्वोक्तरीत्या नैव यत्र गन्तुं शक्नुयात् एवं तस्य साधोः नो कल्पते सर्वतः समन्तात् गन्तुं प्रतिनिवर्तितुं यत्र च एवं कर्तुं न शक्नुयात् जलं विलोक्य गमनं स्यात् तत्र गन्तुं न कल्पते इति भाव:जवादमुदकं यत्र, दकसङ्घट्टकस्त्वसौ, नाभिमानश्च लेपोऽसौ, तवं लेपकोपरि // 65 // वर्षाकालं विना यत्र, दकसंघट्टके त्रिभिः, सति क्षेत्रश्च नो तत्र, इन्यते गन्तुमिष्यते // 66 // वर्षाकाले च नो क्षेत्रं, सप्तभिरुपहन्यते, चतुर्थे चाष्टमे चैवं, दकसङ्घटके-सति // 67 // // 43 //