________________ श्री ऋषभ चरित्रम् मोकल्पमुक्तावल्या // 432 // एवं पञ्च अहोरात्रा, उत्कृष्टलन्दमुच्यते / तन्मध्ये मध्यमं लन्द, लन्दमपि मनागिति // 56 // स्तोककालमवस्थातुं, कल्पते च ह्यवग्रहे / अवग्रहात्परं नैव, बहिः स्थातुं हि कल्पते // 57 // अपिशब्दादलन्दं हि, बहुकालमथोऽपि च, एकत्रावग्रहे स्थातुं, षण्मासानपि कल्पते // 58 // अवग्रहादहिः किञ्च, नैव स्थातुं हि कल्पते / गजेन्द्रपदशैलस्य, मेखलाग्रामकादिषु // 59 // स्थितानामपि साधनां, षट्सु दिक्षु, उपाश्रयात् / सार्द्धक्रोशद्वयं यावत्-गमनागमने वरम् / 60 // पञ्चकोशात्मकश्चैवं, विज्ञेयोऽवग्रह इह / यत्तु-विदिक्षु यच्च पूर्वोक्तं, तद्ववहारवर्मना // 61 // विदिगपेक्षया बोध्यं, नात्र दृषणमण्वपि / निश्चयविदिशामेक, प्रदेशात्मकहेतुतः // 6 // सर्वथा गमनाभावो, नात्र रेका विचार्यताम् / नोरादिना यदाऽटव्या, व्याघातेषु तदाऽत्र भोः-॥६३।। त्रिदिक्को द्विक दिको वा, चैकदिक्कोथवाग्रहः, भाव्य एव बुधै बुंध्या, चेति सिद्धान्तनिर्णयः // 6 // म-पा-वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सक्कोसं जोयणं-भिक्खायरियार गर्नु पडिनियत्तए (2) 10 // __ व्याख्या-वर्षावासं चातुर्मासकं पर्युषितानां स्थितानां कल्पते निर्ग्रन्थानां निग्रन्थीनां वा सर्वतः चतसृषु दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु च सक्रोशं योजनं भिक्षाचर्यायां गन्तुं प्रतिनिवर्तितुम् ( // 10 // मू-पा-जत्थ नई निच्चोयगा निच्चसंदणा, नो से कप्पइ सव्वओ समंता सक्कोसं योजणं भिक्खायरियाए गंतु पडिनियत्तए // 11 // // 432 //