________________ श्री कल्पमुक्कावल्या भी ऋषम चरित्रम् // 412 // वज्रस्वामीति स ध्या, भिक्षां तां न समाददे, सन्तुष्टाश्च ततो देवा, ददुईकृतिलब्धिकाम् // 20 // नररूपाः पुन देवा, घृतपूरकभिक्षिकाम् , ददुः किश्च न जनाह, पूर्ववद्वज्रसूरिराट् // 21 // नभोगमनविद्यान्ते, प्रसन्ना स्त्रिदशा स्ततः, दत्वा प्रशंसमानाच, स्वकस्थानमुपागमन् // 22 // अन्यश्च- पाटलिपूर्धनश्रेष्ठी, कश्चिदासीत्सुताऽस्य च, रुक्मिणी रतिरूपाढया, रूक्मिणीव पराऽभवत् // 23 // वज्रस्वामिगुणग्रामान् , साध्वीभ्यो रूक्मिणी सदा, निशम्याभिग्रहठचक्रे, भूयादेष पति मम // 24 // एकदा विचरन्स्वामी, तत्रेयाय महायशाः, रूक्मिणी जनक नम्रा, प्रोवाच वज्रकांक्षिणी // 25 // यकामये पितनित्यं, सोऽयमत्र समागतः, श्रुत्वेति प्राथितः पित्रा, वज्रस्वामी सुताकृते // 26 // वज्रस्वामी तदा प्राह, यदीयं तावकी सुता, मय्यनुरागिणी चास्ति, ग्राह्या दीक्षाऽनया सुखम् // 27 // तक रागवती साऽपि, दीक्षाब्जनाह भावतः, रूक्मिणी त्वथ सा राजी, वर्ण्यते केन वत्सरैः // 28 // मोहोमसिन्धुचुलकीचकार, यो वज्रसूरि विलसल्प्रभावः, कान्तानदीस्नेहमहाप्रवाह,स्तं प्लावियेद्धीरतम कथङ्कौ // 29 // एकदा विचरन् स्वामी, कौवे- दिशि शक्तिमान / तत्रस्थेन च सङ्केन, प्रार्थितः करुणानिधिः // 30 // दुर्भिक्षपीडिताः स्वामिन्नुपायः कोऽपि चिन्त्यताम् / विद्यानिधिर्भवांश्वास्ति, न दोषो सङ्घरक्षणे // 31 // वज्रस्वामी ततः सङ्घ, संस्थाप्य विस्तृते पटे / समुभिक्षं त्वरा सङ्घ, नीतवान् पुरिकापुरम् // 32 // बुद्धधर्मानुगस्तत्र राजाऽऽसीत किश्च तेन च / सर्वत्र जिनचैत्येषु, पुष्पादानं निषेधितम् // 33 // // 412 //