________________ श्रीकल्पमुक्तावा श्री ऋषम चरित्रम् // 358 // पूर्व प्रम नैव च पृष्ट एव, स्थातुं विनाऽऽहारमलं न शक्यते // गेहेऽपि यातुं भरतहिया नो, योग्यं हि वान्ताशनवत्तदस्ति // 5 // ध्यायन्त एवात्र प्रभुं महान्तं, श्रेयांस्ततो नो वनवास एव // पत्राणि जीर्णानि च खादयन्तः, कालं नयामः सुखतो बनेऽपि // 6 // गङ्गातटे चैव विमृश्य सर्वे, शीर्णानि पकानि फलानि नित्यम् // खादन्त एते धृतकेशकूर्चाः, सञ्जज्ञिरे तापसवेशभूषाः // 7 // महाकच्छस्य कच्छस्य, सुतौ देशान्तरादितः, नमिविनमिनामानौ, दैवात्तत्र समागतौ // 8 // स्वामिना स्वीकृतौ यो च, पुत्रत्वेन पुरा वरौ, राज्यभाग तत स्ताभ्यां, भरतोऽपि ददौ मुदा // 9 // अवगणय्य तं वाक्या-पितुः स्वामिसपीपके, आगतौ किञ्च नाथस्तु, प्रतिमास्थित एव च // 10 // ततस्तौ नलिनी पर्णे, नीरमादाय सर्वतः, सिञ्चनश्चक्रतुर्भूमे, रजश्शान्तिर्यतोऽभवत् // 11 // कृत्वा च जानुदनं तौ, सुरभिकुसुमोत्करम्, पञ्चाङ्गपूर्वप्रणामञ्च, क्रिवांसौ च भक्तितः // 12 // निसरः सर्वथा स्वामी, जानीत इति तौ न च, राज्यं देहि प्रभो नी त्वं, विज्ञप्त्येति सुभेजतः॥१३॥ धरणेद्रश्च तौ वीक्ष्य, वन्दनार्थमुपागतः, भगवद्भक्त्या च सन्तुष्टः, प्रोचिवानिति तौ प्रति // 14 // निःसङ्गो भगवानस्ति, याचेयां न प्रभुं युवाम् , भगवद्भक्त्याऽहमेवालं, दास्यामि च यथेप्सितम् // 15 // // 358 //