________________ श्रीकल्पमुक्तावा श्री ऋषम चरित्रम् 346 // अनेकदेवदेवीभि, वेष्टितो गुणवारिधिः, युगलाख्यनरोत्कृष्टो, ववृधे क्रमशः प्रभुः // 2 // यदाऽऽहाराभिलाषाऽस्य, तदाऽयं विश्ववन्दितः, सुराक्षिप्तसुधापूतां, क्षिपत्यगुलिकां मुखे // 3 // तीर्थकरास्तथा चान्ये, पावना वीतरागिणः, बाल्यकाले च बोद्धव्या, ऋषभः स्वामिवबुधैः // 4 // बाल्यातिक्रमणे किञ्च, जिनास्ते वहिपाकजम् , आहारं प्रतिसेवन्ते, सत्पुण्यगुणराशयः // 5 // आव्रतावधि नाभेयः, कल्पवृक्षफलानि च, उत्तरकुरुक्षेत्राणां, सुरानीतानि सस्वदे // 6 // किश्चिद्नाब्दनाभेये, प्रथमश्र शचीपतिः, स्थापनञ्जिनवंशस्य, कुरुते चेति पद्धतिः // 7 // विचिन्त्येति कथं पार्वे, रिक्तपाणि रहे प्रभोः, यामीति महतीमिक्षु-मुष्टिमादाय सुन्दराम् // 8 // नाभिकुलकरकोडे, शोभितस्य प्रभो पुरः, मन्त्रीव भूभृतस्तस्थौ, सेर्पायनवासवः // 9 // इक्षुयष्टिश्च तत्पाणौ, दृष्ट्वा श्री ऋषभः प्रभुः, प्रसन्नमुखपद्मन, स्वामिना तत्ववेदिना // 10 // पाणौ प्रसारिते सद्य, श्वेक्षु किं त्वं नु खादसि, भणित्वेति च सुत्रामा, ददौ तां मुदिताननः // 11 // इक्ष्वमिवाञ्छया वंश, स्वामिनो जगतांपतेः, भवत्विक्ष्वाकुनामाऽत्र, यावच्चन्द्रदिवाकरौ // 12 // पूर्वजानां तथैतस्य, गोत्रश्चापीक्षुवाञ्छया, काश्यपत्वेन देवेन्द्रः, स्थापयामास नम्रधीः // 13 // युगलं किमपि कापि, पितरौ शिशुतायुतौ, अधस्तालस्य संस्थाप्य, नातिदूरमुपागतौ // 14 // पततात्तालवृक्षस्य, फलेन दैवयोगतः, तन्मध्यात्पुरुषः सद्यो, मृत्युशय्यामुपाश्रयत् // 15 // // 34 //