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________________ कल्पमुक्ता-1 वल्यां प्रथम व्याख्नाने दशकल्प अधिकारः // 7 // सोपाधिकविनेयस्य, चरित्रेच्छो स्तथैव च / कल्पते च द्वयोर्धाम्नि, वस्तूनाङ्ग्रहणं सुखम् // 19 // // कानि तानि वस्तूनीत्याह // तृण 1 डगल 2 भस्म 3 मल्लक 4 पीठ 5 फलक 6 शय्या 7 संस्तारक 8 लेपादिवस्तूनि 9 चारित्रलिप्सुः सोपधिकशिष्यश्च 10 // // अथ चतुर्थ कल्पः // राजपिण्डः-इति. राजते स्वसत्तया तरणिवत्प्रकाशते. इति. राष्ट्र-तस्य पिण्ड इति राजपिण्डः-कोऽसौ राजेत्याह // पञ्चभिः सह यो राज्यङ्करोति किल तैस्तथा / कृताभिषेकश्च राजाध्यतथ्यते शास्त्रकोविदः // 20 // के ते पञ्च इत्याह / सेनापतिः 1 पुरोहितः 2 श्रेष्ठी 3 अमात्य 4 सार्थवाह 5 // तस्य राक्षः पिण्ड:-अष्टविधः स च प्रथम चरम जिनमुनीनामकल्प्य एव // तस्याष्टविधत्वमाह // अशनादिचतुष्कम् 4 वस्त्रम् 5 पात्रम् 6 कम्बलम् 7 रजोहरणम् 8 इति // तद्ग्रहणेऽपि बहवो दोषाः उत्पद्यन्त इत्यत आह // लोभता खाद्यवस्तूनां, लघुता निन्दनन्तथा / इमे दोषा स्तथाश्चान्ये, जायन्ते राजपिण्डके // 21 // प्रवेशागमरोधेन, राजद्वारादिषु ध्रुवम् / स्वाध्यायपाठहानिःस्यादेहनाशः कुशाकुनात् // 22 // द्वाविंशजिनसाधूनाङ्कल्पोऽयं नैव निश्चितः / अभावात्पूर्वदोषस्य, कल्पतेऽपि यथासुखम् // 23 // // अथ पञ्चमकल्पः // किइकम्मत्ति-क्रियते. इति कृतिः-वा करणं कृतिः-कर्तव्यता तस्याः कर्म कृतिकर्म वन्दनम्. वन्दनेति-अर्थात्-दीक्षा पर्यायेण मत्तः-अयमुत्कृष्टो ज्येष्ठ इति बुध्या कृतप्रणामव्यवहारो वन्दनत्वम्-तच द्विधा-अभ्युत्थानम्-द्वादशावर्तश्चेति // 7 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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