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________________ मा जिना न्तराणि श्रीकल्पमुक्तावल्यां // 337 // मृ-पा-संतिस्स अरहओ जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स एको चउभागूणे पलिओवमे विइकते / पण्णष्टिं च, सेस जहा मल्लिस्स // 16 // 189 // / व्याख्या-शान्तिनाथस्य-अर्हतः-यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य एक-चतुर्थभागेनोनं पल्योपमं व्यतिक्रान्तं पञ्चषष्टिलक्षाः शेषं मल्लिनाथवद ज्ञेयम् श्रीशान्तिनिर्वाणात्पल्योपमार्द्धन श्रीकुन्थुनिर्वाण ततश्च पल्यचतर्थभागपञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीति वर्षातिक्रमे-पुस्तकबाचनादि-उभयमिलने च सत्रो. तं पादोन पल्योपमं स्यात् शेषं मल्लिनाथवत् तच्च पञ्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहस्रनवशताशीतिवर्षरुपं ज्ञेयं एवं सर्वत्र // 189 // 16 // मृ-पा-धम्मस्सणं अरहओ जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स तिणि सागरोवमाई विइकताई पण्णढि चसेस जहा मल्लिस्स (15) // 19 // ___व्याख्या-धर्मनाथस्य अर्हतः-यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य त्रीणिसागरोपमाणि-व्यतिक्रान्तानि पञ्चपशिलक्षाः शेषं मल्लिनाथवज ज्ञेयम् श्रीधर्मनिर्वाणात् पूर्वोक्तपादोनपल्यन्यनैस्त्रिभिः सागरोपमः श्रीमाननिर्वाणं ततश्च पादोनपल्योपम पश्चषष्टिलक्षचतुरशीतिसहखनवशताशीतिवर्षातिक्रमे पुस्तकवाचनादि // 19 // (15) म-पा-अणंतस्स णं अरहओ जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स सत्तसागरोवमाई विरक्ताई। पण्णर्टि च. सेसं जहा मल्लिस्स (14) // 191 // AAAAAADAA // 337 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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