________________ श्री कल्प श्री नेमिनाथ चरित्रम् मुक्तावल्यां // 324 // सखीगीरः साऽपि सतीललामा, श्रुत्वैव कौँ च पिधाय सख्यौ / किमेतदश्राव्यवचो भवत्यौ, बृत्तो न चैतन्मरणेऽपि भूयात् // 99 // // तथाहि // जइ कहवि पच्छिमाए, उदयं पावेइ दिणयरो तहवि / भत्तुण नेमिनाह, करेमि नाई वरं अन्नं // 9 // // भावार्थः // प्रोदेतु भानु दिशि पश्चिमायां, सिन्धुः स्ववर्त्म त्यजतात्तथैव / भूतु पातालमलन्तथापि, मुक्तवा न नेमि विदवेऽन्यनाथम् // 10 // // पुनरपि प्रति प्रभुम् / / दत्से यथेच्छ व्रतमादिदित्सु, यद्याचकेभ्यो गृहमागतेभ्यः / / सम्प्रार्थयन्त्या जगदीश ! किश्च, प्राप्तो मया नो प्रतिपाणिपाणिः // 10 // ॥अथ पुनरपि विरक्ता राजीमती प्राह // जइविहु एअस्स करो, मज्झकरे नो अ आसि परिणयणे, तहवि सिरे मह सुच्चिअ, दिक्खासमय करो होही // 11 // // भावार्थः॥ पाणिग्रहे यद्यपि नास्य पाणिः, पाणौ ममाभूज्जगतीश्वरस्य / दीक्षाऽभिकाले तु स एव पाणी, राजिष्यते मे शिरसि प्रणमे // 102 // // ततः॥ पाणिपीडन वै रक्तं, नेमि प्राह ततो नृषः, समुद्रविजयः खिमः, परिवारलसत्तनः॥१०३ // किमाह // नाभेयमुख्या जिनपुङ्गवास्ते, कृत्वा विवाहं वरमोक्षधाम / जग्मुस्ततस्ते पदमुत्तमं किं, सद्ब्रह्मभाजो वद मे कुमार // 104 // // 324 //