________________ श्रीकल्पमुक्तावल्यां श्री नेमिनाथ चरित्रम् // 323 // चेदात्मनः प्रभुरयं, बत. बद्धराग, थान्यत्र वस्तुनि भवेदत एव धिक् त्वाम् // 15 // // पुननिःश्वस्य सोपालम्भञ्जगाद // जइ सयलसिद्धभुत्ताइ, मुत्तिगणिआइ धुत्त ? रत्तोऽसि / ता एवं परिणयणारंभेण, विडंबिआ किमहं // 5 // // भावार्थः। यदि च सकलसिद्धामुक्तसौन्दर्यसारा, मभिलपसि मुक्ति धूर्त ! वाराङ्गनां त्वम् / परिणय परिरम्भः स्वीकृतः किं त्वया रे !, यदहमपि कुमारी वञ्चिता हा मुखेभ्यः // 9 // इति विलपन्तीं राजीमती बीक्ष्य सरोषं सख्यौ-जगदतुः लोअ पसिद्धी वत्तडी, सहिए इक्क सुणिज / सरलं विरलं सामलं, चुक्किा विही करिज्ज // 7 // ॥अथवा।। पिम्मरहिअमि पिअसहि / एअमिवि किं करेसि पिम्मभावं ? पिम्मपरं, किंपि वरं अन्नयरं, ते करिस्सामो // 8 // // क्रमशो द्वयो र्भावार्थः / / लोकप्रसिद्धा सखि किम्वदन्ती, न श्यामलः कोऽपि च साघुचेताः / कश्चिद यदिस्यात्सरलो हि कृष्णो, दोषोऽत्र बोध्यो हि विधातुरेव // 67 // ॥अथवा // निष्प्रेमणि त्वं सखि किङ्करोषि, प्रेमानबन्धं नरि कुत्सितेऽस्मिन् / अन्यं वरं प्रीतिपरं सुरुप, उचान्वेषयावः शुचमाशु मुञ्च // 6 // // तदनु राजीमती॥ // 323 //