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________________ कल्पमुक्ता वल्या प्रथम व्याख्याने दशकल्प HIT अधिकारः // साधूनाश्रित्येति // बहुमूल्यानेकवर्णीयाम्बराणाम्परिधारणात् / सचेलका हि साधवो, द्वाविंशतिजिनांहिगाः॥४॥ श्वेतमानाल्पमूल्योय, वस्त्राणाम्परिधारणात् / अचेलकाश्वते बोध्याः, कल्पोऽयं नियतो नहि // 5 // अचेलकाश्च विज्ञया, नाभेयवीर साधवः / श्वेतमानोक्त जीर्णानि, वासांसि दधते च ते // 6 // // अथ दृष्टान्तेनोपश्लोकयति // लौकिकोऽपि च दृष्टान्तो. हृदि विज्ञे विभाव्यताम् / दृष्टान्तो हि निबन्धेषु, प्रायोऽलङ्कार उच्यते // 7 // जीर्णप्राये च तुच्छे च, देहे सत्यपि वाससि / उत्तरन्तो नदी लोका, वयंनग्ना वदन्ति नु // 8 // उद्दिश्य रजकञ्चव, ब्रवीतीति यथा जनः / नग्नोऽहं मामकं वस्त्रं, दीयतां सति चाम्बरे // 9 // यथा चात्र सत्यपि शरीरे वस्त्रे निर्वस्त्रत्वव्यवहारो जायते तद्वत्-वस्त्रसद्भावेऽपि मुनीनामचेलकत्वव्यवहारो भण्य-ते-इति स्फुटम्-इति प्रथमः कल्पः॥ // अथ द्वितीय कल्पमाह // ___उद्देशीयत्ति-उत् विशेषेण दिश्यते कमपि साधु मुद्दिश्य यद्वस्तु तन्निमित्तं निर्मीयते तत् उद्देश्यम् तस्य भावःऔदेशिकम्-इति प्रथमस्यान्तिमस्यापि, जिनस्योत्तमतीर्थके / अशनपान खाद्यादि, वस्त्रपात्रादिधामकम् // 10 // साधुमेकं समुद्दिश्य, तथैकसमुदायकम् / साधूनामपि साध्वीनाकृतश्चेत्कल्पते नवा // 11 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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