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________________ गणधरवादः श्रीकल्पमुक्तावल्यां l૨૭રૂા. यतः-॥ विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय नान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति // एतेभ्यो वेदवाक्येभ्यः, संशयस्ते भवान्तरे, भूतेभ्यो जायते जीवः, पुन स्तेषु विलीयते // 129 // परलोको ततो नास्ति, गत्यन्तरप्ररूपकः, भो मैतार्य परम्पूर्व, मिन्द्रभूतिप्रबोधने // 130 // अस्मदुक्तप्रकारेण, सत्यार्थ त्वञ्च भावय, येन ते संशयो नश्याद्-हिमवद्रविरश्मिभिः // 131 // भावयित्वा च वेदार्थ, नष्टसन्देहनिर्मलः, सविनेयो ललौ दीक्षा, प्रभुपादाब्जषट्पदः // 132 // / इति दशभो गणधरः // दिक्पालानिब तान् विज्ञान, दीक्षितान् दशसंख्यकान् , आश्चर्यमादधे श्रुत्वा, प्रभासाभिधपण्डितः॥१३३॥ आयान्तं प्रभुराहैन, निर्वाणे संशयाकुलम् , भावयान्तः प्रभास ! स्वं, वेदार्थ सत्यवर्मना // 134 // तद्यथा- // जरामर्य वा यदग्निहोत्रम् , अतः सर्वदा कर्तव्यमिति // अनेन वेदवाक्येन, मोक्षाभावः प्रतीयते, अग्निहोत्रच यल्लोके, जरामयं हि तद ध्रुवम् // 135 // अग्निहोत्रच कर्तव्यं, सर्वदा चेति वाक्यतः, उक्ता कर्तव्यता नित्य-मग्निहोत्रस्य नैगमे // 136 // अग्निहोत्रक्रिया तस्मा-निर्वाणहेतुका न हि,- वधोपकारमूलत्वा-त्केवलं स्वर्गदायिनी // 137 // ततो मोक्ष स्ततो नास्ति, निर्विवादमिदं स्थितम्, तत्साधकक्रियाऽभावा-मोक्षाभाव प्रतीयते // 138 // 1 // अग्निहोत्रात् // 273 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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