________________ श्रीकल्प गणधरवादः मुक्तावल्या 1.272 // // इत्यष्टमो गणधरः॥ अचलवान्धवोऽप्येवं, श्रत्वा तमपि तादृशम्, वर्द्धमानांघ्रिमासेवे, गुरोरिव सुराधिपः॥१२॥ सन्दिहानश्च तम्साह, विषये पुण्यपापयोः, जगतीजन पूज्यांहिः, श्रीवीरजिनपुङ्गवः // 121 // यतः- // पुरुष एवेदं ग्नि, सर्व यद् भूतं यश्च भाव्यम् // चेतनाचेतनं यद्धि, दृश्यते जगतीतले, सर्व पुरुष एवास्ति, पुण्यपापे तथा न च // 122 // अग्निभूते रूपाख्याने, सर्वमेतन्निरूपितम्, तथाऽत्रापि च विज्ञेयं, बुद्धिमद्भिस्तदुत्तरम् // 123 // // किन्तु // पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पापः- पापेन-कर्मणा-इत्यादिः // इत्यादिवेदवाक्यैस्तु, सिद्धिश्च पुण्यपापयोः, सुतरामेव जायेत, ततः शङ्काऽत्र कीदृशी // 124 // वसन्ततिलकावृत्तम्- पीत्वा जिनाननगवीं बुधराजिमौलीः, सत्यामृतोत्तमसोदधिवीचिपूताम् छिन्नान्तरातिगहनभ्रमशान्तचेताः, प्रावीव्रजद् ह्यचलबन्धुरसौ स शिष्यः // 125 // ॥इति नवमो गणघरः॥ दिग्गजानिव तान् सर्वान्, पण्डितानवसंख्यकान्, जित्वा च दीक्षिताञ् श्रुत्वा, मैतार्याभिधपण्डितः // 126 // विस्मयानन्दपाथोधि, मग्नचेता ययौ त्वरा, प्रभुपादान्ति भेत्तुं स्वं, संशयश्चिरकालजम् // 127 // गत्वा नत्वा तमासीनं, प्रभुः प्राह दयानिधिः, परलोके च सन्दिग्धं, वेदार्थ साधु भावय // 128 // // 272 // BE