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________________ ITAN गणधरवादः श्रीकल्पमुक्तावल्या રદય | विज्ञानं तत्तु विज्ञयं, निर्मल शुद्धिदायकम् , आत्माऽपि तन्मयस्याद्वै, विज्ञानघन उच्यते // 118 // अनन्तज्ञानपर्यायी, प्रतिप्रदेशमेष च, उपयोगात्मक श्वात्मा, विज्ञानधन एव च // 119 // भूतेभ्यस्तद्विकारेभ्यो, घटादिभ्यो हि जायते, घटादिज्ञानप्रणामी, जीवोऽयं सुखदुःखभाक् // 120 // घटादिहेतुभूतेभ्यो, भवतीति विबुध्यताम् , घटवस्त्रादिबोधस्य, परिणामस्य चात्र वै // 121 // घटपटादिवस्तूनां, मिथः सापेक्षहेतुतः, निरपेक्षे चात्मनो योग, स्तेभ्योऽभिजायते पृथक् // 122 // घटादिवस्तु भूतेभ्यो, जीव स्तदुपयोगतः, समुत्थाय समुत्पद्य, तान्येवानुविनश्यति // 123 // अस्य वाक्यस्य सत्यार्थ, मीदृशं विद्धि गौतम, नष्टे व्यवहिते वाऽथ, तस्मिन् घटादिवस्तुनि 124 // नश्यति खलु जीवोऽपि, तदुपयोगरूपतः, अन्योपयोगतो भूयो, जायते तिष्ठतेऽथवा // 125 // सामान्यरुपतस्तस्मा प्रेत्य संज्ञाऽस्ति नास्य च, पदस्यापि स्फुटार्थोऽयं, श्रूयतामिन्द्रभूतिक! // 126 // अयं घटः पट चाय-मित्युपयोगरूपिणी, प्राक्तनी किल या संज्ञा, परं सा नावतिष्ठते // 127 // वर्तमानोपयोगेन, तद्घटादिप्रबोधने, जायते न च सा संज्ञा, तस्या विनाशहेतुतः॥१२८॥ वेदोक्तमपरं वाक्यं, शृणु जीवप्रबोधकम् , यतस्ते संशयः सद्यो, नश्यति चिरसंस्थितः // 129 // स वै अयम् आत्मा ज्ञानमयः इत्यादि द द द इति वेदोक्तिः // आत्मा हि ज्ञानरूपोऽस्ति, स्फटिकाकारसन्निभः, दकारत्रयकं वेत्ति, यः स जीवो निगद्यते // 130 // // 26 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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