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________________ गणधरणाद: मोकल्पमुक्तावल्या // 254 // सुमिष्टफलसदवृक्षान्- उष्ट्रा इव कटुप्रियाः, घूका इव रवे स्तेजः, पायसं सूकरा इव // 37 // त्यक्त्वेमे निर्जरा हन्त ?, पावनङ्क्रतु मण्डपम् , पाखण्डिसविधे यान्ति, विवेकशून्यचेतसः // 38 // सर्वज्ञो यादृश चैष, त्रिदशा अपि ते तथा, संयोगोऽयमतो योग्यो, बालानामिव बालकैः // 39 // भृङ्गाः रसाले सुरभौ मिलन्ति, तगन्धविज्ञाः कलमारुवन्तः, अप्रीतिरावाः करटाः परंहा, निम्बप्रसूना वलिमाभजन्ते॥४०॥ | पश्यानुरूपञ्जगतीह योग्य, नाहं तथाप्यागमपारदृश्बा, सर्वज्ञताश्च क्षपणस्य चास्य, सर्वज्ञ राजी प्रसहे प्रसिद्धम् // 41 // अर्क द्वयं व्योम्नि यथा न भाति, दऱ्यां यथा केसरियुग्मकञ्च, खङ्गालये खङ्गयुगं तथाऽत्र. सर्वज्ञ एषोऽहमपारविद्यः॥४२॥ वन्दित्वा श्री महवीरं, निवर्तमानमानवान् , इन्दभूतिरूपाहासी, पप्रच्छेाकुलेन्द्रियः // 43 // भो भो दृष्टः स सर्वज्ञः, कीग्रूपस्वरूपकः, इति पृष्ठजनैरुक्तं, शृणु विद्वन् यथातथम् // 44 // यदि त्रिलोकी गणना पशस्या, त्तस्याः समाप्ति यदि नायुषः स्यात्, . पारेपराद्धगणितं यदिस्याद, गणेयनिश्शेषगुणोऽपि स स्यात् // 45 // एवमुक्त जनैः सोऽपि, दध्यौ पण्डित मण्डितः, काहकैप महाभेद, स्ताराचन्द्रमसोरिव // 46 // धूर्त विद्याप्रगल्भोऽयं, मायायाः केलिमन्दिरम् , समस्तोऽपि जनो येन, विभ्रमे हन्त ! पातितः // 47 // न क्षमे क्षणमात्रन्तु, तं सर्वज्ञ कदाचन, तमस्तोममपाकर्तु, सूर्यों नैव प्रतीक्षते // 48 // वैश्वानरः करस्पर्श, केसरोलुश्चनं हरिः, क्षत्रियो हि रिपुक्षेपं, न सहन्ते कदाचन // 49 // मया हि येन वादीन्द्रा, स्तूष्णीं संस्थापिताः समे, गेहे शूरतरः कोऽसौ, सर्वज्ञो मत्पुरो भवेत् // 50 // DASHEMAe0saxRA // 254 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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