________________ श्रीकल्पमुक्कावल्या र्गाधिकार // 24 // चरितं विपिने यातौ, वृषभी स्वैरचारिणौ / आगत्य पृष्टवान् वीरं, गोपालकच मे वृषी 127 // सति मौने प्रभौ गोप-उचक्रोध भृशमात्मनि / कर्णयोः स्वामिन स्तेन, प्रक्षिप्ते काष्ठकीलके 1528 // लग्नाग्रभागपर्यन्त-कीलयामास दुष्टधीः / अज्ञानहतबुद्धीना-ङ्क दया क विवेकता // 529 // अप प्रक्षेपणेनैत-च्छय्यापालक कर्णयोः / उदितं कर्म मे चेह, त्रिपृष्टभवके कृतम् // 530 // शय्यापालक एषोऽत्र, भवं भ्रान्त्वा च भूरिंशः / गोपालः खलु सञ्जज्ञ, कृतवेरप्रतिक्रियः // 531 // नगरीमगमत्स्वामी, त्वपापोत्तरमध्यमाम् / सिद्धार्थवणिजो गेहे, पारणार्थन्ततो गतः // 532 // खरक स्तत्र वैद्योऽभू-निरीक्ष्य स्वामिनं सकः / सशल्यो लक्ष्यते स्वामी, ज्ञानवानिति दक्षधीः // 533 // वैश्योऽिप तेन वैद्येन, सहोद्यानमजीगमत् / ततः सण्डासकाभ्यान्ते, निर्गमयति कीलके // 534 // तदाकर्षणवेलायां, वीरोऽराटिमथाकरोत् , यथा च भैरवाकारं, तदुद्यानमभूत्तदा // 535 // संरोहिणीमहौषध्या, नीरोगोऽभूत्प्रभुस्तदा, देवकुलञ्जनै स्तत्र, कारितमतिसुन्दरम् // 536 / / वैद्यवैश्यौ गतो स्वर्ग, गोपः सप्तमनारकम् , उपसर्गाश्व यथा दृब्धा-स्तथा तेनैव निष्ठिताः॥५३७॥ उपसर्गान् महावीरः, सोढवान् यांस्तक क्रमः, जघन्यमध्यमोत्कृष्ट, विभागेन विबुध्यताम् // 538 // शीतोपसर्ग माकार्षीद , व्यन्तरी कटपूतना, जघन्येषु च स शेय, उत्कृष्टोऽपारदुःखदः॥५३९॥ कालचक्रोपसर्गों यः, सङ्गमेन कृतो महान् , उत्कृष्टो मध्यमेधूक्त, उपसर्गेषु कष्टदः // 540 // OPTURI // 24 // प