________________ प्रभुविहार मुक्तावल्या // 239 // नीरपङ्काविला वीक्ष्य, वेणीं तामतिममृणाम् , गृहीत्वा च यथास्थानं, पुत्रीबुध्या दधार स // 499 // तथा दृष्टवा च मूलाऽपि, वातायनस्थिताऽस्थिरा, इयञ्च युवतिः पत्नी, श्रेष्ठिनोऽस्य भविष्यति // 50 // निर्माल्यमिव त्याज्याऽहं, भविष्यामीति चिन्तया, ईर्ष्याग्निज्वालया जज्ञे, शुष्यद्वक्रसरोरुहा // 501 // मुण्डयित्वा शिर थास्यः, कृत्वा निगडबन्धनम् , यन्त्रमध्ये निरुध्यैनां, नष्टा कापि च मूलिका // 502 // चतुर्थे दिवसे श्रेष्टी, तच्छुद्धि तकभाग्यतः, सम्प्राप्य मुमुदे पूर्व, दृष्टवा च हृदि विव्यथे // 503 // कन्याया हन्त ? मे चाद्य, दशा जाता च कीदृशी, विपरीते विधौ कष्ट-जायते महतामपि // 504 // यन्त्रमुदघाटय तां बालां, तदवस्थां निधाय च, देहल्यां सर्पकोणेऽस्या, ददौ कुल्माषकां स्ततः // 505 // निगडभञ्जनार्थाय, लोहकारस्य मार्गणे, यावच्छ्रेष्ठी गत स्ताव-भावनां साऽकरोदिमाम् // 506 // साम्प्रतं भिक्षुकः कश्चि-दागच्छेदत्र चेद्वरम् , तस्य दत्वा च भुजेऽहं, कुल्माषान्प्रीतिपूर्वकम् // 507 // चिन्तन्त्यां तदा तस्यां, भगवांस्तत्र चागतः, मुदिता साऽपि हे स्वामिन्-गृहाणेदञ्जगाद च // 508 // निरीक्ष्य रोदनं न्यूनं, स्वामी चाभिग्रहे ययौ, अगृहीत्वा ततः किञ्चित-प्रतिज्ञापरिपालकं // 509 // रुरोद नितरां साऽपि, गते स्वामिनि चन्दना, पूर्णाभिग्रहमावीक्ष्य कुल्माषानग्रहीत् प्रभुः // 510 // अत्र कवि:- चन्दना चन्दना मन्ये, कथं बालोच्यते बुधैः, प्रतार्य जगतीनाथ, कुल्मा मोक्षमाददे // 51 // तदैव पञ्च दिव्यानि, जाटानि श्रेष्ठिमन्दिरे, आययौ देवराड्देवा, नतु मुदिताननाः // 512 // ||239 //