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________________ प्रभुविहारः श्रीकल्पमुक्तावल्या व // 238 // प्रतिपत्पौषमासस्य, चासीद् बाहुलपाक्षिकी, पुरप्रवेशवेलायां, स्वामिनोऽमृतभाजिनः // 484 // जग्राहाभिग्रहं स्वामी, दुष्करमल्पशक्तिभिः, द्रव्यक्षेत्रादिभावेन, चतुः प्रकारभावितम् // 485 / / द्रव्यतः सूर्यकोणस्थान्-कुल्माषान् क्षेत्रत स्तथा, पादमेकञ्च देहल्या, थान्त चैकं बहि स्तथा // 486 // कृत्वा स्थिताऽनुयातेपु, भिक्षुकेषु च कालतः, भावतो भूपदुहिता, दासी मुण्डितमस्तका // 487 / / शङ्खलाबद्धपद्मांघ्रिः- रूदती चाष्टभक्तिका, दास्यति चेद् गृहीष्यामि, नान्यथा विधुरेपिच // 488 // इत्यभिगृह्य शान्तात्मा, भिक्षायै प्रतिवासरम् नगर्यो भ्रमति स्वामी, तथा नृपप्रधानकैः // 489 // उपाये क्रियमाणेऽपि, पूर्यतेऽभिग्रहो नहि, महतामपि हा कष्टं, गहना कर्मणां गतिः // 490 // शतानीकेन भूपेन, तदा चम्पा विनाशिता, चम्पाधीशोऽपि दुद्राव, दधिवाहन भूपतिः // 491 / / तदा च धारिणी राज्ञी, पुत्री वसुमती तथा, पदातिना च केनापि, गृहीते हतभाग्यके // 492 / / करिष्ये त्वामहं भायाँ, प्राहेति धारिणीं भटः, श्रुत्वैव रसनां छित्वा, स्वस्य सा निधनं गता // 493 // पुत्रीबुध्या समाश्वास्य, पुत्री वसुमतीं ततः, विक्रेतुं तामगात्सोऽपि, कौशाम्भ्या च चतुष्पथे // 494 // धनावहेन सा क्रीता, श्रेष्ठिना राजकन्यका, चन्दनेत्यभिधानञ्च, कृत्वा पुत्रीतया घृता // 495 / / विनयादिगुणे रेवं, मधुरैः सत्यभाषणैः, साधुशीला च सा बाला, वत्सलाऽभूच्च वित्तिनः // 496 // एकदाहट्टतः श्रेष्टी, मध्याह्ने गृहमाययौ, व्यापान्तरिता भृत्या, श्चन्दनाऽऽसीद्गृहे परम् // 497 // पितृबुध्या च तत्पादौ, क्षालयन्त्याः सुभक्तितः, शिखिपिच्छजया वेणी, पतिताऽवनिमण्डले // 498 // - રા
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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