SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ %AGO श्रीकल्पमुक्तावल्या प्रभुउपसगाधिकारः // 237 / निषिद्धाखिल कौटुम्बो, निर्धनः परमेककः, अलर्कसारमेयाभो, देवलोकानिराकृतः // 469 // मन्दराचल चूला या-मवशेषकसागरम् , दुष्टात्मा सङ्गमश्चैष, यापयिष्यति चायुषम् // 47 // दीनानना महीष्योऽस्य, प्रधानाः शक्रवाक्यतः, अनुजग्मुः स्वभारं, शरणं पति रेव च // 471 // आलम्भिकां ययौ स्वामी, प्रियं प्रष्टुश्च तत्र वै, विद्युत्कुमार देवेन्द्रो, हरिकान्तः समाययौ // 472 // श्वेताम्बिकापुरे चैवं, प्रियं प्रष्टुं तथैव च, विद्युत्कुमार देवेन्द्रो, हरिस्सहः समागतः॥४७३॥ श्रावस्त्याश्चततः शक्रः, स्कन्दमूयाँ प्रविश्य च, ववन्दे स्वामिन जातो, महिमाऽति ततो महान् // 474 // कौशाम्न्याश्च ववन्दाते, सूर्याचन्द्रमसौ प्रभुम् , वाराणस्यां ततो यातः, शक्रेन्द्रेण च वन्दित // 475 // राजगृहे ततः स्वामी, चेशानेन्द्रेण वन्दितः, मिथिलायां विदेहश्च, धरणेन्द्रः प्रियं तथा // 476 / / पृच्छन्ति स्म च वन्दित्वा, स्वामिनो ध्वस्तमोहिनः, वैशालीनगरे स्वामी, चैकादशमथाकरोत् // 477 // चातुर्मासं प्रियं तत्र, भूतानन्दो हि पृच्छति, सुसुमारपुरं स्वामी, ययौ प्रतिमया स्थितः // 478 // चमरेन्द्र स्तदा दर्प, कृत्वा जेतुं शचीपति, सौधर्ममगमत् किञ्च, बिडौजा मुक्तवान् पविः // 479 // तद्भीतिकम्पमानाङ्ग, श्चमरेन्द्र स्तत स्त्वरा, जिनस्य शरणं यातः, सर्वाङ्गि क्षेमकारिणः // 480 // क्रमेण जगतीनाथः, कौशाम्ब्यां समवासरत् , शतानीको यत्र भूपो, राज्ञी यस्य मृगावती // 481 // धर्मपाठकवादी च, मुगुप्तसचिवस्तथा, तद्भार्या श्राविका चासी-नन्देति महिषीसखी // 482 // विजया प्रतिहारी च-तत्र श्रेष्टी धनावहः, मूला तस्य प्रिया भार्या, द्वेषमूला मनोरमा // 483 / / // 237 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy