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________________ ओकल्प प्रभुउपसगर्गाधिकार मुक्तावल्या // 236 // नीराहारतया कालो, गतो वीर प्रभो रहो, गोचर्यायां यदा स्वामी, ब्रजग्रामस्य गोकुले // 454 // प्रविष्टोऽशनमाश्चक्रेऽ-नेषणीयं सुराधमः, इति ज्ञात्वा प्रभुः शान्तः, स्थितः प्रतिमया बहिः // 455 // विशुद्धपरिमाणाढय, निश्चलञ्जगदीश्वरम् , विज्ञायावधिनो देवो, विषण्णहदयस्ततः // 456 // इन्द्र भीत्या प्रभुं नत्वा, सौधर्म प्रति जग्मिवान् , तत्रैव गोकुले स्वामी, परिभ्रमंश्च वृद्धया // 457 // वत्सपाल्या कया भक्त्या, परमानेन लाभितः, पतिता वसुधारा हि, हर्षिता जगतीजनाः // 458 // इतश्चनिर्जरा देव्यः, सौधर्मवासिनोऽखिलाः, निरानन्दा निरुत्साहा, बभूवु स्तस्य चेष्टया // 459 / / वर्जितगीतवाद्यादि, स्तावत्कालं सुराधिपः, प्रशंसा मत्कृतैवा भूत् , प्रभूपसर्ग हेतुका // 460 // इतिचिन्तामहाव्याली-ग्रसितो मलिनाननः, पाणिपङ्कजविन्यस्त, मुखपङ्कज देवराट् / / 461 // दीनदृष्टि निरानन्द, स्तस्थौ तत्र निजालये, भ्रष्ट प्रतिज्ञकृष्णास्य-मागच्छन्तं सुराधमम् // 462 // वीक्ष्य शक्रः सुरानूचे, विमुखीभूय तम्प्रति, कर्मचाण्डाल एषोऽत्र, समागच्छति दुर्मुखः // 463 // दर्शनश्चापि दुष्टस्य, महापापाय जायते, अपराद्धः कृतो भूरि, चानेनास्माकमध हा // 464 // अस्मदीयमहास्वामी, जिनोऽनेन कदर्थितः, यथाऽस्मत्तो न भी रस्य, पातकादपि तो तथा // 465 // निर्वास्यतां ततः शीघ्रं, दुरात्माऽसौ सुरालयात् , इत्याज्ञामुररीकृत्य, शक्रस्य शक्रसैनिकैः // 466 // यष्टिमुष्टयादिभिर्वा ताडयमानश्च सङ्गमः साङ्गुलीमोटनं देवी, कृता क्रोशानने कशः // 467 / / सहमानो हि साशङ्क, चौर इव-इत स्ततः, पश्यन् नीलाम्जनाकारो, निस्तेजा वेदनाकुलः // 468 // // 236 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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