________________ प्रभुविहारः श्रीकल्पमुक्तावल्यां ना२३५॥ मेरुचूलाप्रमाथि यत् , सहसभारमानकम् , मुक्तश्चक्रं खलेनालं, घोरोपसर्गकारिणा // 440 // तेना जानु प्रभुर्मग्नो१८, धरायां तरूकाण्डवत् , तथापि भगवान् वीर, स्तदवस्थो व्यराजत // 441 // कृत सन्धो हिया म्लानो, दध्यौ च सङ्गमोऽमरः. धीरोऽयञ्चाल्यते नैव, चोपसर्गपरः शतैः // 442 // प्रतिकूलान् विहायात, उपसर्गाश्चकितोऽमरः, अनुकूलान् विधास्यामि, यतः सिद्धि ध्रुवं मम // 443 // कमनीयं ततः प्रात, विकुळ मनुजां स्तथा, भ्रमन्त्येते वदन्त्येवं, प्रभुं ध्यान परायणम् // 444 // देवायें ? तिष्टसे त्वति, प्रभातं पश्य सुन्दरम् , समत्तिष्ठ परं वेत्ति, ज्ञानेन रजनी१९ विभुः // 445 // देवर्द्धिश्च विकुासी, नानामणिगणाञ्चिताम् , महर्षे ! वृणु. यच्चेट, प्रोवाच स्वामिनम्प्रति // 446 / / स्वर्ग नयामि या मोक्ष-मित्युक्त्वा मिष्टया गिरा, रतिरूपा विशालाक्ष्यो, निर्मिता देव बल्लभाः // 447 // हावभावैश्च विवोकैः, प्रभु मोहयितुं२० भृशम् , लग्नास्ता देवसुन्दर्य, स्तथापि निश्चलः प्रभुः // 448 // एकस्यामेव यामिन्यां, कृता स्तेन च विंशतिः, उपसर्गा महाघोराः परीक्षार्थमतो प्रभोः // 449 // भगवांश्चलितो नैव, मन्युश्च न च चक्रिवान , शान्ताकृति महाध्यानी, रेजे चन्द्र इवापरः // 450 // (कविघटना) जगत्त्रयीध्वंसनपालन क्षम, बलं कृपा सङ्गमकेऽपराधिनि, इतीव सञ्चित्य मानसं, रुषेव रोप स्तव नाथ निर्ययौ // 451 // विजहार प्रभु यंत्र, तत्रैष सङ्गमोऽमरः, अनेषणीयमाहार, चकार दुर्जनाग्रणी // 452 // पण्मासीन्तु तथा चक्रे, चोपसर्गान् बहून् खलः, षण्मास्यां सहमानस्य, सुरकृतोपसर्गकान् // 453 // // 235 //