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________________ प्रभुविहार श्रीकल्पमुक्तावल्या // 223 // श्रीपार्श्वनाथ सच्छिष्यो, भूरि शिष्यसमावृतः, आचार्यमुनिचन्द्रो हि, तत्रासीद्विलसद्यशाः // 269 // शालायाङ्कुम्भकारस्य, भव्याम्भोजदिवाकरः, दृष्टवा साधूंश्च गोशाल:- के यूयमिति पृष्टवान् // 27 // निर्ग्रन्था वयमित्येते, प्रोचुश्च सत्यभाषिणः, पुनः प्राह च गोशालः, स्वभावाच्चपलाशयः // 271 // के यूयं कच मे ज्ञानी, धर्माचार्यः सुरार्चितः, यादृशस्त्वं तथाऽऽचार्य, उक्तन्तैरपि साधुभिः // 272 // ततोऽतिरूष्टगोशाल, उवाच युष्मदाश्रयः, दह्यतां तपसा शीघ्रं, धर्माचार्यस्य मेऽधुना // 273 // केयम्विभीषिका साधो? बालेष्विष नियोज्यते, न शापेन भयं नापि, दह्यते चास्मदाश्रयः // 274 // इति तैः साधुभिः प्रोक्तं, पार्श्वनायांध्रिषट्पदैः, अदग्धमाश्रयंदृष्टवा, गोशालोऽपि खलाशयः // 275 // गत्वा प्रोवाच वृत्तान्तं, स्वामिनम्प्रति मूलतः, सिद्धार्थः प्राह रे मूढ ? नैते सामान्यसाधवः // 276 // तुलनाञ्जिनकल्पस्य, विदधन्मुनिचन्द्रकः, उपाश्रयाहि नक्तं, स्थितः प्रतिमया तदा // 277 // पीत मैरेयमत्तश्च, कुम्भकारोऽपि सम्भ्रमन् , आययौ चौरबुद्धया त अघान प्रतिमास्थितम् // 278 // शुभध्यानेन मृत्वाऽसौ, मुनिचन्द्रोऽपि सूरिराट्, देवलोकं ययौ मंक्षु, चावधिज्ञान भूषितः // 279 // महिमाथ मुने देवै, रुद्योतोऽकारि चाश्रये, गोशालोऽपि बभाणाशु,. दह्यते पश्यताश्रमः // 280 // यथास्थितंश्च सिद्धार्थः, कथयामास तम्प्रति, निष्फलोद्योग गोशालो, ददाह हृदि भोगिवत // 281 // म्लानवक्त्र खपायुक्तो, गोशालोऽजनि कूटगीः, तत्र गत्वा च तच्छिष्यां, स्तयित्वा समागतः // 282 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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