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________________ प्रभुउपस श्रीकल्पमुक्कावल्या गर्गाधिकारः वट्टलकं गृहीत्वा च, खराधोनिधापितम् , ऊरणकस्तथाऽनेन, भक्षित इन्द्रशर्मणः // 158 // . स्थापितानितदस्थीनि, स्वगृहबदरीतले, / अवाच्यमस्य तार्तीयं, तद्भायैव वदिष्यति // 159 // गत्वा पृष्टा च तद्भार्या, जनैः सकाऽपि तद्दिने, / कलिनाग्रसिता तेन, सत्रा प्रोवाचकोपतः // 160 // अद्रष्टव्यमुखश्चैष, जना भोः पापचिन्तकः, / भगिनीमपि भुक्ते स्वां, प्रोच्यते किमतः परम् // 161 // ततोऽसौ लज्जितोवाढ-मुपवीरमुपागतः। विजनेज्ञपयामास विनयानतमस्तकः // 162 // . स्वामिस्त्वं विश्वपूज्योऽसि, सर्वत्र पूज्यसे ततः,। अहन्त्वत्रैवजीवामि, क्षम्यतामेष भोः प्रभो // 16 // विज्ञायाप्रीतिमस्यापि, विहरंश्च ततः प्रभुः। श्वेताम्बीपथमाश्रित्य, प्राचलद्विश्ववत्सलः // 164 // गोपाला मिलिता मार्गे, प्रोक्तं तैः स्वामिनं प्रति, / मार्गोऽयं विकटः स्वामिन् , श्वेताम्ब्या येन गम्यते // 165 // कनकखलसंज्ञानां, तापसानां प्रभो पथि, / आयाति स्थान मेतर्हि, वर्तते च भयान्वितम् // 166 / / चण्डकौशिकसंज्ञोऽत्र, सर्पो दष्टिविषोऽस्ति वै, / पञ्चत्वं प्रापिता स्तेन, खलेन बहवो जनाः // 167 // अयं पन्था स्ततस्त्याज्यो, गम्यतामितरेण च,। भगवान् वार्यमाणोऽपि, विनयिगोपबालकैः // 168 // चण्डकौशिकसर्पस्य, प्रतिबोधार्थमध्वना, / तेनैवनिर्भयङ्गच्छं-स्तापसाश्रममभ्यगात् // 169 / / . . चण्डकौशिकनागोऽपि, चासीत्पूर्वभवे मुनिः, / तपस्वीति महाख्याति, यस्याभूच जनान्तरे // 170 // एकदा सहशिष्येण, तपः पारणहेतवे,। मार्गे गच्छंश्च पादाघ-स्तस्यैका विधियोगतः // 17 // // 21 // -
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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