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________________ श्री कल्प मुक्तावल्यां प्रभुउपसर्गाधिकारः // 212 // निष्कम्पं निश्चलं दृष्टवा, ध्यानस्थं शान्तचेतसं, / प्रभुभूयोऽपि चुक्रोध, पापात्मा विघ्नहेतवे // 116 // गजोरगपिशाचानां, रुपं कृत्वा च दुष्टधीः, / उपसर्गामहाघोरां, चकार निर्ममे प्रभो // 117 // तथापि क्षुभितो नाभूद् , भगवान् धैर्यवारिधिः, / सिंहस्याग्रे कियान्-शब्दो, गोमायूनां मिथः कृतः // 118 // नासिकालिककर्णाक्षि, दन्तपृष्टनखेषु च, / क्रुद्धोऽसौ वेदनाश्चक्रे, विविधा विदयी प्रभोः // 119 // तथाप्यकम्पितंवीरं, सुमेरुमिववायुना, / वीक्ष्याऽयं प्रतिबुद्धश्च, तादृशाश्चर्यदर्शनात् // 120 // तदानीमेव सिद्धार्थों, व्यन्तरः समुपेयिवान् , / शूलपाणिमहायज्ञं, प्रोचिवांस्तर्जयन्निव // 121 // हे निर्भाग्य ! महापाप ! शूलपाणे ! महाधम, / देवेन्द्रपूजिते नाथे, त्वया चाशातना कृता 122 // यदा ज्ञास्यति देवेन्द्र-स्तव कृत्यं च भोः खल!, तदा स्थानं च ते सम्यकू, स्फेटयिष्पति दूरतः // 123 // ततो भीतोऽधीकं यक्षो, भगवन्तं जिनेश्वरम, पूजयामास सदभक्त्या, तदधैर्यगुणरञ्जितः // 124 // प्रभोरग्रे ततो यक्षो, गायति चाथ नृत्यति, / तदाकर्ण्यजनादध्यु-हतोऽनेन प्रभुर्बुवम् // 125 // तस्मान्नृत्यति दुष्टोऽसौ, गायति च मुदा तथा, / योग्यायोग्ये विवेको हि, मूर्खेषु न च विद्यते // 126 // देशोनतुर्ययामांश्च, भगवानपितदानिशः, / महतीं वेदनांहन्त, सोढवान्-दुःसहाम्परैः // 127 / / अतः प्रातः क्षणं निद्रां, लेभे च जगतीपतिः। ऊद्धवस्थ एवं स्वप्नांश्च, ददर्श दश जागृतः // 128 // प्रभाते मिलितो-लोको, ग्रामस्थो यक्षमन्दिरे,। दिव्यगन्धप्रसूनैश्च, पूजितंवीक्ष्य सुस्थितम् // 129 // भगवन्तं तदा सर्वे, जहर्षुर्मुदिताननाः, / ववन्दिरे च सद्भक्त्या, प्रभुन्तेऽपूर्वतेजसम् // 130 // પરશુરા -
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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