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________________ श्रीकल्पमुक्तावल्या प्रभुउपस | गाधिकार // 21 // शकटवामभागे च, भूत्वा सद्वीर्यशालिना, / शकटानि च सर्वाणि, नियूंढानि च पङ्कतः // 102 // यतः-धवलो विषीदति स्वामिन् , अहं गुरुं भारं प्रक्षिप्य / अहं किं न योजितोद्वयोधुरोः खण्डे द्वे कृत्वा // 11 // पराक्रमेण तेनासौ, भिन्न सन्धिरभूत्परम, / अशक्तदैहिको जातो, विधायस्वामिकृत्यकम् // 10 // तदाऽसक्तश्च तं वीक्ष्य, धनदेवोवणिग्बरः, / तत्प्रबन्धकृते ग्रामे, वर्धमानेययौ त्वरा // 104 // तदग्राममुख्यवर्गेभ्य-स्तृणनीरादिहेतवे / दत्वा भूरिधनं तत्र, मुक्तोऽसौ वृषभोत्तमः॥१०५॥ कृतघ्नाममुख्यैश्च, कृता सेवाऽस्य नो मनाक, / वृषभोऽपि शुभध्यानात्मृत्वा व्यन्तरतामगात् // 106 // ग्राममुख्यकृतं वैरं, स्मरंश्चप्राग्भवीयकम् , व्यन्तरोजातकोपोऽसौ, जज्वालवहिवद्हृदि // 107 // तत्र ग्रामे ततस्तेन, मारीरोगेण भूरिशः, / निहतानिर्दयंलोका, हाहाकारो यथाऽजनि // 108 // संस्कारः कियतामत्र, क्रियते हेतुनेति च, / अग्निदाहम्विनामुक्ता, यत्र कुत्रापि मार्तकाः // 109 // तेषामस्थिसमूहेन, पर्वतोपमराजिना, / अस्थिग्रामः प्रसिद्धोऽभूत् , तदिनादिहभूतले // 110 // मृतावशिष्टलोकैस्तु, यक्षश्चाराधितस्ततः, / प्रादुर्बभूव यक्षोऽपि, दिव्याकृतिघरस्तदा // 111 // कारितं मन्दिरं स्वस्य, प्रतिमा च तथाऽमुना, / स्थापितातैरियन्तत्र, पूजा च क्रियते सदा // 112 // ज्ञानवान् भगवांश्चापि, यक्षबोधनहेतवे, / विहरन्नाययौ तत्र, तच्चैत्ये चारुनिर्मिते // 113 // दुष्टोऽसौमारयत्याशु, स्वचैत्यान्तरसंस्थितम् , / वार्यमाणोऽपि लोकेश्व, नक्तं तत्र स्थितः प्रभुः // 114 // प्रभुक्षोभाय तेनापि, भूबिलभेदकारकः, / अट्टहासः कृतो भूयान् , व्याप्नुवंश्च दिगन्तरम् // 115 // // 21 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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