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________________ प्रभुविहारः श्रीकल्प // तत्रेदमाकूतम् // मुक्तावल्यास जिनसन्ततिसन्दोहे, वस्त्रपात्रेषु मूर्छनम् , / सूचयत्यति केचिच्च, वदन्ति प्रौढबुद्धयः // 71 // // 208 // विप्रवंशेऽथवा जातो, भगवांस्तेन हेतुना, / दत्तमेतच्चवस्त्रार्द्ध, केषांच्चमतमीदृशम् // 72 // गृहीत्वाऽध च विप्रोऽसौ, दशांचलकृते ततः, / देशयामासतत्खण्डं, तुम्नवायस्य सुन्दरम् // 73 // कुतः कथञ्च भो विप्र !, प्राप्तमेतत्त्वयाऽम्बरम् , / विप्रोऽपिसकलंवृत्तं, प्रोचिवांस्तत्पुरस्तदा // 74 // उवाच सोऽपि भो विप्र !, गच्छभूयोऽपि तं विभुम् , / निर्ममः करुणासिन्धु-स्तदर्धमपि दास्यति // 75 // तदाऽहं योजयिष्यामि, तदर्धद्वयमुत्तमम् , / दीनारलक्षमूल्यं च, भविष्यति न संशयः // 76 // अर्धम विभक्तेन, दारिद्रयं द्वयोरपि, / नश्यति क्लेशमूलं च, रविणेव तमस्ततिः // 77 // ब्राह्मणोऽपि च तद्वाचा, पुनः प्रभुमुपागतः, / शेके न त्रपया वक्तुं, वर्ष बभ्राम पृष्ठतः // 7 // स्वयमेव ततो भूमौ, पतितं दृष्यखण्डकम् , / गृहीत्वा सोऽपि सिद्धार्थों, जगाम निजमन्दिरम् // 79 // सवस्त्रधर्मविख्याति, हेतवे प्रभुणा तदा, / मासाधिकाब्दपर्यन्तं, स्वीकृता ननु वस्त्रता // 8 // सपात्रधर्मविख्याति, हेतवे च तथा प्रभुः, / पात्रेण पारणांचक्रे, मर्यादोदधिपारगः // 81 // तदिनाद्भगवान् वीरो, यावज्जीवमचेलकः, / पाणिपात्रश्चसञ्जज्ञे, वैराग्यमिव मूर्तिमान् // 82 // इत्थम्विहरतश्चास्य, कदाचित्सरितस्तटे, / मृत्तिकातनुपङ्कालि, विम्बितपदपंक्तिषु // 83 // // 20 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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