________________ प्रभुविहार श्रीकल्प // प्रभोरचेलकत्वं चेत्थम् // मुक्तावल्या मासाधिकैकवर्षान्तं, विहरन् ज्ञातनन्दनः, दक्षिणाधिकवाचाल, नगराभ्यर्णवर्तिनी // 48 // // 206 // सुवर्णवालुका नाम्ना, नदी तत्र समाययौ, ततोगच्छंश्चतत्तीर, कण्टकाग्रे विलग्य च // 49 // देवदृष्यार्धमुत्कृष्टं, पतितं दैवयोगतः, सिंहावलोकनेनैप, दृष्टवा च जग्मिवांस्ततः // 50 // // अत्र सिंहावलोकने च मतानीत्यम् // ऊहापोहस्तथा चात्र, क्रियते सूरिभिस्त्वयम् , सिंहावलोकनं केऽपि, ममत्वेन वदन्ति च // 51 // Hel योग्यस्थानेऽथवाऽयोग्ये, पतितं हेतुतः परे, सन्ततेखपात्राणि, दुर्लभसुलभानि किम् // 52 // कण्टके वस्त्रसंसर्गा-च्छासनं कण्टकायितम् , भविष्यतीति मे वृद्धा, वदन्ति श्रुतकोविदाः // 53 // निर्लोभत्वाच्च वस्त्राध, न जग्राह प्रभुः परम् , पितृमित्रद्विजेनैतद्, गृहीतमपरंपुरा // 54 // देवदृष्यार्घखण्डं प्रभुणा तस्यैव पूर्वदत्तमेव-तच्चेत्थम् // यथेच्छं दीयमानेऽसौ, जिनवार्षिकदानके, दरिद्रः सर्वथा विप्रः, परदेशंगतोऽभवत् // 55 // तत्रापि भाग्यहीनत्वात् , किश्चिदप्राप्य दुःखितः, गेहमेवाययौ स्वीय, गृहिण्या तर्जितो भृशम् // 56 // यदा श्रीवर्द्रमानेन, सुवर्णजलदायितम् , तदा रे भाग्यहीन ! त्वं, परदेशपरोऽभवः // 57 // निर्धनःपुनरायतो, निर्लज्ज ! भाग्य, दृषितः, याहि दूरं मुख स्वस्य, मे मा दर्शय दर्शय // 58 // // 20 //