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________________ श्रीकल्पमुक्तावल्या उपसर्गाधिकारः // 204 // मरणान्तोपसर्गाणां, वारणाय शचीपतिः, व्यन्तरं स्थापयामास, प्रभुमातृस्वसुः सुतम् // 24 // स्थितिमेवं विधायासौ, निर्जराणां महाधिपः, वन्दयित्वा विभुं नत्वा, त्रिदिवं जग्मिवान् स्वकं // 25 // कोल्लाकसन्निवेशाख्ये, ग्रामे प्रातस्ततः प्रभुः, बहुलाभिधविप्रस्य, गेहमितिधियाऽगमत् // 26 // मया प्रज्ञापनीयोऽत्र, सपात्रधर्म इत्यसौ, परमान्नेन तद्गेहे, पात्रेऽकार्षीच्च पारणाम् // 27 // अम्बराणां ततो वृष्टिः, सुगन्धनीरपुष्पयोः, निस्वानो दुन्दुभेरेवं, सर्वश्रुतिमुखप्रदः // 28 // अहो दान महोदान-मित्येषोद्घोषणा तथा, वसुधारासुवृष्टिश्च, पञ्चदिव्यानि जज्ञिरे // 29 // // तत्र पञ्चदिव्यमध्ये वसुधारावृष्टिस्वरूपमित्थम् // अर्धत्रयोदशकोटय, उत्कर्षा तत्र भवति वसुधारा / अर्धत्रयो दशलक्षा, जयन्यिका भवति वसुधारा // 30 // विहरंश्च ततो वीरो, मोराकसन्निवेशके, प्रस्थिवानाश्रमं शान्त, दुइज्जन्ततपोनिधेः // 31 // मित्रं सिद्धार्थभूपस्य, नाम्ना कुलपतिर्विभुम् , उपस्थितस्तदा तत्र, दीक्षाऽभरणमण्डितम् // 32 // प्रभुणापि त्वरा बाहू, मिलनाय प्रसारितो, स्मरता पूर्वप्रीतिं च, मृणालनालकोमलौ // 33 // तस्य प्रार्थनया तत्र, रात्रिमेकां स्थितः प्रभुः, क्षपनिव दुःखानि, जनयन् मोदसन्ततिम् // 34 // नीरागचित्तकोऽप्यस्य, महोपरोधतः प्रभुः, स्वीकृत्य तुर्यमासी च विजहार पुरान्तरम् // 35 // अष्टौ मासान् जिनाधीशो, विहृत्य पावयन् क्षितिम् , वर्षार्थमाययौ तत्र, पुनः संयमवारिधिः // 36 // आगत्य समलचक्रे, कुलपतिनिदेशतः, कुटीं तार्णी प्रभुः शान्तो, दण्डके रामवत्पुरा // 37 // // 204 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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