________________ श्रीकल्प. मुक्कावा जिउपसर्गाधि कार // 203 // कामजित्वर सद्रपं, सुगन्धितशरीरकम, वीक्ष्य नार्योऽपि वीरस्य, बभूवुर्मारवेपिताः // 9 // विचित्रैहविभावैश्च, विलसत्किलकिञ्चितः, अनुकूलोपसगांश्च, चक्रुस्ता निजसिद्धये // 10 // भगवांश्चापि निष्कम्पो, मेरूवच्छुशुभे तदा, सहमानश्च तान् स्वैरं, विजहार गतस्पृहः // 11 // मुहूर्तशेषवेलायां, तद्दिने चरमो जिनः, कुमारग्राममाप्राप्तः, कायोत्सर्गे स्थितो निशि // 12 // वाहयित्वा वृषान् कश्चिद् , गोपोऽपि सकलं दिनम् , विभुपार्थे च तान् मुक्त्वा, गोदोहाय गृहङ्गतः // 13 // वृषभाश्च वनं जग्मुः, स्वेच्छया चरितुन्तदा, आगत्य पृष्टवानेप, प्रभो क मे वृषा बद // 14 // अजल्पति जिनेशे च, नायं वेत्तीति सोऽपि च, वृषान् मार्गयितुं यातो, चिन्तया गहनान्तरे // 15 // रात्रिशेषे स्वयं वार्षाः, प्रभुपार्श्वमुपागताः, अप्राप्तवृषभो गोप-स्तत्रैव समुपागमत् // 16 // बलीवर्दाश्च दृष्टवाऽसौ, गतचिन्तोऽभवत्परम् , जानताऽनेन यामिन्यां, नामितोऽहं मुधा न किम् // 17 // इति बुध्या चुकोपैप, रज्जुमुत्पाट्य सत्वरम् , मूर्खधीर्धावितो इन्तुं, वीतरागजिनेश्वरम् // 18 // ज्ञात्वा चावधिना शक्रो, गोपदुष्कृत्यमाशु च, आगत्य शिक्षयामास, गोपमज्ञानचेष्टितम् // 19 // व्यजिज्ञपत्ततः शक्रः, प्रभु स्वभावसंस्थितम् , उपसर्गाः सन्ति भूयांसः, प्रभो ते कष्टकारकाः // 20 // वैयावृत्यनिमित्तेन, ततो द्वादशवत्सरीम् / प्रभुपादाब्जरोलम्ब, स्यामेति मम भावना // 21 // जिनेन्द्रोऽपि ततोऽवादीद्, भो भोः शक्र ! सुराधिप !, कदाप्येतच्च नो लोकै, भूतं भव्यं भविष्यति // 22 // अमरामुरनाथस्य, सहाय्येन जिनेश्वराः, उत्पादयन्ति नो ज्ञानं, केवलं किन्तु ते स्वतः // 23 // M20 //