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________________ श्रीकल्प कार: मुक्तावल्या // 202 // // अथ षष्ठं व्याख्यानं प्रारभ्यते // तुर्यज्ञानविभूषितो हि भगवानादाय चाज्ञां ततो, बन्धूनां विजहार बन्धुनिवहस्तत्पृष्ठमाजीगमत् // यावद् दृष्टिपथं जगाम भगवांस्तावच्च दृष्टयैकया, वीक्षाश्चक्रिरिरे विषादभरिताः संप्रोचुरित्थं मिथः // 1 // परमसुखद वीर, त्वां विनैतहि बन्धो / विपिनसदृशगेहं, स्वं व्रजामः कथं हा, वयमथ सह केन, प्रीतिगोष्ठी चरामो-ऽशनमपि जिन ! रम्य, केन सत्राऽथ कार्यम् // 2 // निखिलकरण गुम्फे, वीर वीरेत्यजख-मतिमुदमभजामा-हूतितो दर्शनान्ते // वयमिह वरबन्धो! चाश्रयामोऽद्य के ही, जगति विधिनियोगा-दाश्रयहीना नु जाताः // 3 // अतिप्रियमतिरम्यं, दर्शनं चक्षुषां नो-ऽमृत सममयि बन्धो, भावि भूयः कदा किम् // विगतविषयचेता-स्त्वकदाऽस्मान् गुणज्ञ ?, स्मृतिपथमपहर्त-र्नेष्यति प्रीतिभावात् // 4 // सततविरहखेदं, दर्शयन् बन्धुवों, जिनविभुगुणाराशि, चिन्तयश्चित्तकोषे // द्रविणरहित मेव, स्वालय साश्रुनेत्रः, क्रथमपि विवशून्य, संययौ हन्त कष्टम् // 5 // किच गोशीर्षचन्दनैः पुष्प-देवै दीक्षामहोत्सवैः / चतुष्मासाधिकं यावत् , पूजितोभूज्जिनेश्वरः // 6 // तवस्थेन गन्धेन, सर्पता च दियन्तरम् , भ्रमरावलिराकृष्टा, विभोर्दशति सत्त्वचम् // 7 // गन्धपुटीच याचन्ते, तरूणा गन्धमोहिताः, प्रभो मौमे च ते रुष्टाः, कुर्वते चोपसर्गकान् // 8 // 202 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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