________________ दाक्षा श्रीकल्पमुक्तावल्या // 192 / प्रहणम् काचिच्चला स्रस्ततमं हि मूर्ध्नि, दधे न माल्यं स्खलिताङ्गयष्टिः // काचिल्लाटे तिलकन्तथाऽध, चक्रे च बाला प्रथमेन्दुरेखाम् // 2 // काचिद्विलोला श्रतिकुण्डले स्वे, क्षोण्यां न जज्ञे पतिते (अपीह) // विस्तीर्णवक्त्रान्तर केशराजिः, पूर्णेन्दुमेघावलिवद दधाव // 3 // आनञ्ज काऽपि नयनं स्ववाम-मुद्वेगचित्ता कलकज्जलेन, काचिन्मृगाक्षी निंजगण्डमेकं, कस्तूरिकाभिविलिलेप नान्यम् // 4 // काचिन्मनोज्ञा वरनागबल्लया, स्त्यक्त्वा च पत्राणि चखाद हर्षात, / अम्भोजपत्राणि किलेययाऽहं, मन्ये च वक्त्रेण निजेन सत्रा // 5 // कण्ठस्थले काऽपि दधौ च काञ्चीम् , रौक्मी कणकिङ्किणिकाऽभिरामाम् / सन्मौक्तिकानां रभसेन काऽपि, हारश्च कटयामधृतातिलोला // 6 // काचिद्दधाना कवरीङ्करेण, विखस्तकौचान्तरकञ्चुकाऽपि, नष्टत्रपेवाभिजगाम मार्गे, दिव्योत्सवालोकनचित्तवृत्तिः // 7 // काचिभुजे नूपुरमादधार, मन्ये भ्रमेणामलकङ्कणस्य, केयूरयुग्मं खलु पादयोश्च, दधे च काचिन्मृगशावनेत्रा // 8 // ररञ्ज चांघ्रि महदर्शनोत्का, गोशीर्षपकेन तदा च काचित् //