________________ श्रीकल्प दीक्षाग्रहणम् मुक्तावल्यां // 189 // अच्युतेन्द्रादिदेवेन्द्र-श्चतुःषष्ठिप्रमाणकैः / अभिषेके कृते रम्ये, श्रीमद्वीरजिनेशितुः // 14 // नृपकृतेषु कुम्भेषु, कुम्भा देवकृतास्तदा / बभुर्दिव्यानुभावेन, प्रविष्टाः सन्त उत्तमाः // 15 // प्राचीमुखं निवेश्याथ, प्रभुं नन्दिमहीपतिः। वारिभिः क्षीरसामुद्र-र्देवानीतैः सुनिर्मलैः // 16 // सर्वतीर्थीयमृत्स्नाभिः, कषायैरखिलैस्तथा / अभिषेकं करोत्येव, मिन्द्राधा अमरा अपि // 17 // भृङ्गारादर्शसद्धस्ता, जयशब्दं मुहुर्मुहुः / कुर्वाणा उपतिष्ठन्ति, प्रभोरग्रेऽतिहर्षिताः // 18 // एवकृत्वा शुभस्नानं, वीतरागो जिनेश्वरः। गन्धकाषाय्यवस्त्रेण, प्रोक्षितांगः समन्ततः // 19 // देवचन्दनसद्रावैश्वानुलिप्त शरीरकः / कल्पप्रसूनमालाभि-विलसत्कम्बुकण्ठकः // 20 // स्वर्णयुक्तां चलस्वच्छलक्षमूल्याईसदृशैः / आवृताङ्गोऽम्बरैः शुक्लै-राजद्वारभुजान्तरः // 21 // केयूरकङ्कणैरेवं, मण्डितोभयसद्भुजः। दिव्यकुण्डलशोभाभि-लसद्गण्डतलोऽमलः // 22 // कारितां नन्दिराजेन, पश्चाशद्धनुरायताम् / धनुभिः पञ्चविंशैश्च, विस्तीर्णामतिमजुलाम् // 23 // षटत्रिंशधनुरुत्तुङ्गा, स्वर्णस्तम्भशताश्चिताम् / विचित्रां मणिसौवर्णे-नद्यामिव यथा नदीम् // 24 // शिबिकाममरैर्दब्धां, प्रबिष्टां शिविकां प्रभुः। आरुह्य चन्द्रप्रभाख्यां, दीक्षार्थ च ततोऽचलत् // 25 // // 189 //