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________________ श्री कल्पमुक्तावल्या विवाह सम्बन्धः // 18 // // अयं सम्बन्धश्चेदृशः // अष्टाविंशतिवर्षाणां, व्यतिक्रमे यथासुखम् माहेन्द्राख्यङ्गतौ स्वर्ग, प्रभुवीरजनिप्रदौ // 1 // आवश्यकमहासूत्र, प्रथयेति च बुध्यताम् / आचारङ्गसूत्रस्य, कथनाद् द्वादशाभिधम् // 2 // गर्भकृता प्रतिज्ञा मे, जाता पूर्णा च साम्प्रतम् / दीक्षायै बान्धवं ज्येष्ठं, प्रष्टवान् भगवांस्ततः // 3 // तादृशीङ्गिरमाकर्ण्य, संसारावासमोचिनीम् / नन्दिवर्द्धन इत्येवं, भ्रातरं प्रोचिवान् शुचा // 4 // मातापितृवियोगेन, दुःखितस्य च मेऽनया / वार्तया क्षिपसि क्षार, क्षते भ्रातरहोऽधुना // 5 // श्रुत्वेति भगवान्याह, वैराग्यरंगरञ्जितः। माता पित्र्यादयो भ्रात, जर्जाता जीवस्य भूरिशः // 6 // तथाहि-पितृमातृ भ्रातृभागिनी-भार्यापुत्रत्वेन सर्वेऽपि / जीवा जाता बहुशो, जीवस्य एकैकस्य // 7 // प्रतिबन्धस्ततो भ्रातः, कुत्र कुत्र विधीयते / आज्ञामतश्च मे देहि, प्रव्रजिष्यामि केवलम् // 7 // निशम्येति ततो ज्येष्ठो, व्याजहार जिन प्रति / जानाम्यईपरं भ्रात, विरहः पीडयत्यमुम् // 8 // मदाग्रहेण भो भ्रात, स्तिष्ठ वर्षद्वयीं गृहम् / भवत्वेवं च वीरोऽपि, प्राह नीतिविशारदः // 9 // मदर्थ किश्च भो बन्धो, प्रारम्भो नो विधीयताम् / प्राशुकाशनपानेन, स्थास्यामि सदनेऽप्यहम् // 10 // नन्दिवर्द्धनभूपोऽपि, स्वीचकार विभोर्वचः। अशिश्रियच्च वीरोऽपि, गृहं वर्षद्वयावधि // 11 वस्त्रालङ्कारयुक्तोऽपि, प्रामुकैपण भोजनः / अपिबन् वारि सच्चितं, स्थितो गेहेऽन्तिम प्रभुः // 12 // // 18 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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