________________ श्रीकर मुक्तावल्या प्रमो पाठशाला प्रेषणम् वीरमारोप्य शिघ्रं स स्वस्कन्धे बालकाकृत्तिः, सप्ततालप्रमाणाङ्गो, ववृधे मायया सुरः // 32 // भगवानपि विश्वात्मा, विज्ञाय तकचेष्ठितम् , दम्भोलिकल्पमुष्टयाशु, जघ्निवांस्तस्य पृष्ठकम् // 33 // सत्प्रहारवेदनाखिनो, मशकाकृतिमाभजत् , सौधर्मेन्द्रवचं सत्यं, मेनेऽसौ स्खलितोदयः // 34 // स्वस्वरूपं ततः कृत्वा, निवेद्योदन्तमादितः, क्षमयामास नम्रात्मा, स्वापराध पुनः पुनः // 35 // जगाम धाम देवोऽपि, तुष्टिमाप शचीपतिः, श्रीवीर इति शक्रेण, कृतं नाम ततो मुदा // 36 / / यतः-बालत्तणेऽपि सूरो, पयईए गुरुपरक्कमो भय / वीरुत्ति कयं नाम, शक्केणं तुद्वचित्तेणं // 37 // // इत्यामलकी क्रीडा // अष्टवर्षाधिकावस्थस्त्रिज्ञानसमलङ्गकृतः, जज्ञेऽथ, श्रीमहावीरः, परमोदयपावनः // 1 // माताऽथ जनकः पश्चाद्, दध्यतुश्च मिथः कदा, योग्योऽयं लेखशालायां, अधुना नौ हि नन्दनः // 2 // हर्षितौ पितरौ मोहाज्ज्ञानवन्तमपि प्रभुम् , सामान्यं खलु मन्वानौ, लेखशालार्थहेतवे // 3 // विचार्य शुभयोगाढ़ये, सल्लग्ने सम्भाशके, सज्जयामासतुः प्रीत्या, सामग्री सकलामपि // 4 // प्रसन्नवदनौ पूर्व, सुमुहूर्ते वितेनतुः, धनद्रव्यव्ययेनाशु, श्लाघनीयमहोत्सवान् // 5 // गजवाजिसमूहैश्च, स्फारकेयूरहारकैः, स्वर्णनिर्मित मुद्राभिः, कुण्डलैः कङ्कणैस्तथा // 6 // // 177 //