________________ श्रीकल्पमुक्तावल्यां 110 देवकृत प्रभुनाम: // 175 // बाल्येऽपि भगवानासी, तेजस्वी रविमाजयी, सर्वासुमन्मनोहारी, पूर्णेन्दुसदृशाननः // 4 // श्रुति मूलपयोजाक्षो, भ्रमरावलिमूर्धजः, बिम्बप्रवालरक्तौष्टो, गजगामी लसद्युतिः // 5 // कमलोपमसत्पाणि, कुन्द पुष्परदावलिः, सुरभिश्च सदिव्यात्मा, देवसौन्दर्य जित्वरः // 6 // जातिस्मरण पूतात्मा ज्ञानत्रय विभूषितः गतरुप धैर्य गाम्भीर्य, कान्त्यादिगुण सन्निधिः // 7 // तिलक इव सर्वाङ्गि, शिरोधार्यों विभुः क्षितौ, शुशुभे ज्ञानतृप्तात्मा, श्रेयो धाम दयो दधिः॥८॥ एकदा ज्ञानवान् स्वामी, कौतुकाध्वपराङ्मुखः संश्चापि दैवयोगेन समानायुः कुमारकैः // 9 // आमलकी कलाकेल्यै, तेषां समुपरोधतः क्रीडां कुर्वन् ह्यनासक्तो बहिमि ययौ सुखम् // 10 // वृक्षेषु वृक्षशाखासु कूहमानाश्च चञ्चलाः, चिक्रीडुस्तत्र ते सर्वे, कुमाराः प्रीतिमानसाः // 11 // तदानीमेव देवेन्द्रः सभायां देवसन्मुखम् , वीरस्य वर्णयनासीद्वैयौदार्यगुणोत्करम् // 12 // साम्प्रतं नरलोके भो, देवाः पश्यत, पश्यत वर्द्धमानो विभुलिः संश्वापि बहुविक्रमी // 13 // शक्रादिभिः पौ देंवेरघृष्यो मनसाऽप्यसौ, धन्योऽयं जगतीमान्यो, ज्ञानवान् बलवान विभुः // 14 // मिथ्यादृष्टि सुरः कश्चित्सौधर्मेन्द्रस्य भारती, स्वान्ते दध्यौ निजे श्रुत्वा, स्ववीर्योत्कर्ष गर्वितः // 15 // निर्जराणामहं स्वामी, मन्ये बुध्येति नाकिपः, निरंकुशां गिरं ब्रूते, दर्शय चातुरी पराम् // 16 // तूलराशिनिपातेन नगराक्रमणांत्विव, कस्कोऽस्य वचने श्रद्धा, कुर्यान्मूर्खत्वलक्षणे // 17 // 75