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________________ श्री कल्पमु. कावल्यां जा शक्रन्द्रकृत जम्माभिषेकाधिकारः एकेन जग्राह प्रभुन्द्वयेन सम्वीजयामास च चामराणि // छत्रन्तथाऽन्येन विभोः स मूनि, वज्रन्तथैकेन दधार शक्रः // 40 // पञ्चाकृतिश्चैष ततः प्रतस्थे, सार्द्धन्ततस्तेन परेऽमराश्च // जग्मुः पुरस्तादपि केऽपि पश्चात् , समायमाना जयराववक्त्राः // 41 // अग्रेगताः पृष्टगदेववर्गान, पृष्ठस्थिताश्चापि पुरो गतांश्च // सद्भाग्यबुध्येति मिथः स्तुवन्ति, जानन्ति तान् धन्यतमांस्तथैव // 42 // अग्रस्थिता लेखततिः प्रभुणां, कोटयर्कभाजित्वररूपराशिम् // दृष्टं स्वपपष्ठादपि नेत्रकाणि, प्रोद्वाञ्च्छति प्रीतिविकाशभाञ्जि // 43 // सद्भावनाभावितदेववन्दै,युक्तः सुरेन्द्रः शिखरे सुमेरोः // स्थितं वनम्वान्यविशिष्टशोभ, सञ्जिग्मिवान् पाण्डुकनामसिद्धम् // 44 // याम्ये सुमेरोः शिखराद्विभाति, रम्या शिला पाण्डुककम्बलाख्या // तत्रस्थितोऽसौ निजके निधाय, क्रोडे जिनं प्राग्वदनो विरेजे // 45 // वैमानिका दिग्१ भवनेशशक्राः, शून्याक्षि२ संरव्याः प्रबलप्रतापाः // द्वात्रिंशसंख्या वरऋद्धिमाज, इन्द्रास्तथा व्यन्तरसंज्ञकाश्च // 46 // - 1 चित्रलोकप्रकाशिके / / 155 //
SR No.600451
Book TitleKalpasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakvimalsuri
PublisherMuktivimal Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages512
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size40 MB
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