________________ श्री कल्पमुकावल्यां विषकन्यकत्वादि / लभन्ते जन्मान्तरभग्नशीला ज्ञात्वा कुर्यात् दृढं शीलता // 1 // त्रिशलामइति च चिन्तनया मलिनानना, शशिमुखी त्रिशला परिवीक्षिता // litilनोगत खेदः निजसखीभिरतस्तककारणे; विनयपृष्टि' रकारि सखीगणैः // 20 // सजलनेत्रमुखी त्रिशला जगौ, विहतभाग्यरविः किमहम्ब्रुवे // व च गतम्बत हा मम जीवित न्धुरि च येन मियाः ?' मुदिताऽभवम् // 21 // अनुजगुश्च तत खिशलाऽऽलयः', सखि च विघ्नचयो व्रजताल्लयम् // अपि च गर्भमुखन्तव कीदृशं सपदि राज्ञि निवेदय कोविदे // 22 // तकमुखादसुका गिरमीदृशीं, श्रुतवती च जगावनु ताः प्रति // यदि च गर्भसुखं सुखताऽखिला, स्विति निगद्य पपात विचेतना // 23 // सुरभिशीतलवारिसमीरणैः, झटिति सा महिषी मतिबोधित, करपयोजधृता च सखीजनै, स्तदनु सा विललाप शनै मैंशम् // 24 // यतः-गुरुकेऽनर्वाक् पारे रत्ननिधाने च सागरे माप्तः, छिद्रघटो न भ्रियते, तर्हि किं दोषो जलनिधेः // 1 // 1 पृच्छेति 2 हे सख्यः / त्रिशला सख्यः // 133 //