________________ श्री कल्पम्कावल्या गर्भकीय litil मनोवेदना // 130 // // द्रुतविलम्बितेन // ऋतमिदम्भविता! यदि मे विधे ?, हरणमस्य शिशो स्तदनु त्वहम् // सुकृत हीनजनावलि मध्यगा, ह्यभवमेव हता त्रिशला ततः // 1 // नहि च भाति मणिः स्मरणात्मकोर, विधि विहीननरौकसि निर्मलः॥ नहि च तिष्ठति रत्ननिधिः क्वचि-दति दरिद्र गृहेषु सुखपदः // 2 // मरुधरेऽमृतपायितरुः कदा, नहि च रोहति हा हत भाग्यतः॥ विगतपुण्यतषाऽऽकुलदेहिनां, किमु च जातु सुधारस लब्धिका // 3 // सतत वक्रतमेन खलेन किङ्क-तमदो विधिना धिगिमं भृशम् / / मम मनोरथ सुन्दर भूरुहो, बत च येन किलाखनि मूलतः॥ 4 // विगत दोष युते नयने पुराऽ, 'दित पुनोऽपहृते सहसा विधे ? // अपि निधिञ्च ददौ प्रथमम्पुनः, खल जहार विधे! सदृशन्त'व // 5 // सुरगिरेः शिखरं प्रथमम्बर-मियमनायि पुन लधु पातिता // अपहृतम्वर भोजन भाजनं, सुपरिवेष्य पुरा खल रे त्वया // 6 // 1 सत्यम् 2 चिन्तामणीति 3 देवताः 4 आदितेति क्रियापदम् 5 खलत्वात्-योग्यमेव // 130 //