________________ पञ्चमे सर्गः१६ // 13 // HIMISSIA ISSIVISIII-III5le क्रियते येन शुश्रूषा सर्वसाधारणं न मे / तद्भुजद्वन्द्वमप्यस्ति दरे परिजनः परः कथमित्थं व्यवस्थाह धारयिष्यामि जीवितम् / कृत्ता पतिपरित्यक्ता निराशा निर्जने वने वृत्तिभ्रंशाद् व्यथा वेगात् श्वापदेभ्योऽथवाधुना / हा हा मयि विपन्नायां कथं बालो भविष्यति ? सङ्कल्पितशतैः प्राप्तः सौम्यः सर्वाङ्गसुन्दरः / इयानेव त्वदङ्गस्य वत्स ! मे दर्शनोत्सवः किश्चिद् मयि विपनायां वैरं त्यक्त्वा पिता तव / त्वां ज्ञात्वात्र त्रपावेशादनुगृहीत वा न वा यद् वा मयि सगर्भायां निःप्रेमा निष्कृपश्च यः / स कथं स्वीकरोति त्वां त्रैलोक्या यमसन्निभः हा हा अलमलं वत्स ! बाष्पं संवृणु संवृणु / त्वामहं पालयिष्यामि वनराज ! विरम्यताम् हन्त सम्यक् मया शीलं यद्यस्ति क्वापि पालितम् / तद् ममास्तु भुजद्वन्द्वं लालयामि सुतं यथा इति वात्सल्यवैधुर्यधैर्यगद्गद्या गिरा / वदन्त्यास्तत्क्षणं तस्याः सम्यक् शीलप्रभावतः दग्धस्मरमहावृक्षप्ररोहयुगलोपमम् / पूर्वाधिकतरश्रीकं प्रादुरास भुजद्वयम् यावद् भुजद्वयसमृद्धिमुदा हृदि स्वं पुत्रं निधाय निविडं परिरभ्य तस्थौ / तावद् ददर्श विशदं दिशि देवभक्षुर्बिम्बं जगन्नयनहारि निशाकरस्य व्यवहितवृकसिंहव्याघ्रसदिसत्त्वं फलकुसुमसमृद्धं शान्तदावानलं च / अपि च सपदि सैव स्वैरझात्कारवारिस्थगितपरिसरासीद् दुस्तरा शुष्कसिन्धुः // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 // // 24 // // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // युग्मम् / दमयन्त्या आश्वासनाय भास्करशिष्येण कथिता कलावत्याः कथा // // 29 // IASHI AISHI // 30 // // 13 //