________________ पञ्चमे स्कन्धे सर्गः 7 चारणश्रमणान् दमयन्ती पूर्वपरिचयं कारयति / // 112 / / DISHIOISII-III ISIF ISIS Isle तत् त्वामायुष्मती विद्मश्चक्षुष्याकृतिमीदृशीम् / ऐश्वर्यरहितत्वेऽपि क्ष्मापालगृहिणीमिव // 13 // इत्युक्ता मुनिना भैमी स्थित्वा क्षणमधोमुखी / निगृह्य बलवद्वाप्पमुपविश्य व्यजिज्ञपत् // 14 // भगवन् ! भाग्यवत्यस्मि दुर्दशापतिताऽप्यहम् / यदेवमनुरूपन्ते भवन्तोऽपि भृशं मयि सुकृतं दुष्कृतं वाऽपि सुखं वा दुःखमेव च / सर्व निवेद्य युष्मासु निःशल्यो जायते जनः // 16 // तत् किश्च बहुनोक्तेन युष्माकं विदुषां पुरः ? / एप तावत् परिच्छेदो मद्वार्त्ताविस्तरस्य यत् // 17 // पृथिव्यां विदितो विद्वान् निषङ्गी निपधेश्वरः / वीरसेनसुतो वीरः क्रौञ्चकर्णान्तकः कृती // 18 // देवदूतो दयायुक्तो बलवान् विनयी नयी / दशदिग्विजयी योद्धा महनीयो महाबलः // 19 // सत्यसन्धः सुधीः शान्तः शत्रुकालानलो नलः / पुण्यश्लोकः सुखी श्लाघ्यो भर्ता मे भूभृतां वरः // 20 // त्रिभिर्विशेषकम् / द्यूतेऽनुजेन निर्जित्य देवाद् निर्विपयीकृतः / मयैवानुगतः पल्या भुजद्वन्दपरिच्छदः // 21 // भिल्लैः पथि पराभूतः खगैः क्षिप्तोत्तरच्छदः / वनाद् वनं व्रजन् ग्रीष्मे सोढवातातपव्यथः // 22 // केनापि हेतुना शीघ्रं सत्त्वसौहृदवर्जितः। समादिश्य पितुर्गेहे गन्तुं लिपिमुखेन माम् // 23 // अनाथां मां परित्यज्य सुप्तामेकाकिनी बने / तथा कथञ्चिद् गतवान् यथा भृयो न वीक्षितः // 24 // युग्मम् / / ग गिरिसरिद्घोरं पश्यन्त्याऽपि मया वनम् / न लब्धः स क्वचिद् भूयः सप्रभाव इव द्रुमः // 25 // निर्विण्णा तमनालोक्य श्रान्तसुप्ता महावने / यस्ता चाजगरेणास्मि मोचिता शबरेण च // 26 // BEHIII AMERI AMEINISHI AISISFIL // 112 //