________________ चतुर्थे धूतार्थ स्कन्छ दमयन्त्याः शोचः॥ सर्गः 5 // 78 // FISIII-III-ISIS ISSIO देवि ! वैदर्भि ! कच्चित् ते चित्ते सुखमखण्डितम् ? / निरातङ्कानि गात्राणि कच्चित् तब तनूदरि ? // 27 // साकारत चित्त सुखमखाण्डतम् / / निरातङ्कानि र को दधाति त्वयि द्वेषं ? कस्त्वामुल्लध्य वर्तते / / कुतस्तव भयं भीरु ! कस्मै मनसि कुप्यसि ? // 28 // सुता मीमस्य राज्ञस्त्वं वीरसेनस्य च स्नुषा / पक्षद्वयविशुद्धायाः कथं कलुषता तव ? // 29 // अयि ! प्रसीद वैदर्भि ! हृदयं सदयं कुरु / प्रिये ! प्रयच्छ मे हन्त ! हन्तकारं च वाङ्मयम् // 30 // इति जल्पन करे धृत्वा निवेश्य निजसन्निधौ / अभिप्रायप्रकाशाय स तस्याः शपथं ददौ // 31 // ततः शिरसि कुर्वाणा करकुड्मलशेखरम् / उवाच वचनं देवी दमयन्ती नलं प्रति // 32 // कथमित्थं महाराज! वृथा मनसि यसे ? / यत्तनोरेव मां पश्यन्नलङ्कारैरलताम् // 33 // किं माणिक्यमयैः कार्य भारभूतैर्विभूषणैः / त्वमेव देव ! नित्योऽसि शृङ्गारो मम जङ्गमः // 34 // पतिसन्मानिता नारी निर्वेपापि विराजते / शोभते हि पयःपूर्णा पद्महीनापि दीर्घिका // 35 // प्रतिकूलप्रियाणां किं पुरन्ध्रीणां प्रसाधनैः / सत्त्वसाहसहीनानां सेनानां डिण्डिमैरिव / / स्वामिन् ! धवलितं विश्व तव कीर्त्या चराचरम् / स एव हि ममोद्योतः शृङ्गारमण्डनं विना // 37 // त्वदर्धासनसान्निध्यं लभमाना मनोरमम् / न श्रद्दधाम्यहं नाथ! पौलोमीमपि सुस्थिताम् // 38 // इत्थं भवत्प्रसादेन सर्वोत्कर्षजुषोऽपि हि / भाग्यहानिः पुनः शीघ्रं संप्राप्ता मम संप्रति // 39 // यत् त्वां मदपकर्षन्ती हरन्ती हृदयं तव / शश्वदक्षवतीयं ते सपत्नीमामुपस्थिता // 40 // IASIAHINITISH // 78 //