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________________ कर्मविपाकचिन्तनाष्टकम् Осларслэгэлзсаал जाति:-मातृपयः, कुलं-पितृपक्षः, शरीरं, विज्ञानम्, आयुष्यं. बलं. भोगः एतेषां प्राप्तौ विषमतां विलोक्य कथं पण्डितस्य संसारे प्रीतिः स्यात् // 4 // | आरूढाः प्रशमश्रेणिं, श्रुतकेवलिनोऽपि च / भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसार-महो दुष्टेन कर्मणा // 5 // . व्याख्या-उपशमश्रेण्या उपरि यावदेकादशगुणस्थानकमारूढाः तथा श्रुतकेवलिनोऽपि-चतुर्दशपूर्वधरा अपि दुष्टेन कर्मणा अहो भ्राम्यन्ते // 5 // अक्सिर्वाऽपि सामग्री, श्रान्तेव परितिष्ठति / विपाकः कर्मणः कार्य-पर्यन्तमनुधावति // 6 // व्याख्या- अन्तिकस्था अन्या सर्वाऽपि सामग्री कारणायोजनाबान्ता इव तिष्ठति किन्तु कार्यकारणाय शीघ्रता न भवति, कर्मणो विपाकस्तु कार्यान्तरमनुसरति, अन्तिमकारणत्वात् कर्मविपाक एक प्रधानं कारणमस्ति // 6 // असावचरमावर्ते, धर्म हरति पश्यतः / चरमावर्तिसाधोस्तु, छलमन्विष्य हृष्यति // 7 // व्याख्या-अयं कर्मविपाकः चरमपुद्गलपरावर्त्तात् पूर्वमन्यपुद्गलपरावतें पश्यतो जनस्य धर्म हरति,चरमपुद्गलपरावत्तिनः साधोस्तु प्रमादरूपं छिद्रम् अन्तर्मम अन्विष्य हृष्टो भवति // 7 / साम्यं विभर्ति यः कर्म-विपाकं हृदि चिन्तयन् / स एव स्याच्चिदानन्द-मकरन्दमधुव्रतः // 8 // JalesaacaolGOLDowdefaCA // 105 //
SR No.600448
Book TitleGyansarashtakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherVadilal Mohakambhai Vakil
Publication Year1962
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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