SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करणनि आवश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः क्षेपाः | भा० गा० // 432 // अंतरमेगं समयं जहन्नमोरालगहणसाडस्स / सतिसमया उक्कोसं तित्तीसं सागरा हुँति॥१६६ // (भा०॥ __ अन्तरमेकं समयं जघन्य औदारिकग्रहणशाटयोः, सत्रिसमयान्युत्कृष्टं त्रयस्त्रिंशत्सागराणि देवायु क्त्वा इह तृतीयसमये संघातयतः // 166 // वैक्रियमाश्रित्याहवेउव्विअसंघाओ जहन्नु समओ उदुसमउक्कोसो।साडो पुण समयं चिअ विउव्वणाए विणिहिट्ठो // 167 // (भा०) वैक्रियसंघातो जघन्यः कालतः समय एव, अयमौदारिकशरीरिणां वैक्रियलब्धिमतां विकुर्वणारम्भे देवनारकाणां च प्रथमतया तहणे, द्विसमयमान उत्कृष्टः कालतः, औदारिकशरीरिणो वैक्रियलब्धिमतस्तद्विकुर्वणारम्भसमय एव वैक्रियसङ्घातं समयेन कृत्वा आयुःक्षयात् मृतस्याविग्रहेण देवेषूत्पद्यमानस्य वैक्रियमेव संघातयतो ज्ञेयः॥१६७ // संघायणपरिसाडो जहन्नओ एगसमइओ होइ / उक्कोसं तित्तीसं सायरणामाई समऊणा // 168 // (भा०) वैक्रियस्यैव संघातपरिशाट उभयरूपः कालतो जघन्य एकसामयिकः, यदौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिमान् द्वितीयसमये उभयं कृत्वा म्रियते, उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरनामानि समयोनानि-संघातसमयहीनानि // 168 // सबग्गहोभयाणं साडस्स य अंतरं वेउविस्स / समओ अंतमुहुत्तं उक्कोसं रुक्खकालीअं॥१६९॥ (भा०) | सर्वग्रहोभययोः शाटस्य चान्तरं समयः, संघातस्योभयस्य च, अंतर्मुहूर्त शाटस्य, जघन्यं, औदारिकशरीरी वैक्रियं कृत्वा मुहूर्त्तानन्तरं तच्छाटं कृत्वा औदारिकस्थः सन् अन्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनः कार्येण वैक्रियं कृत्वा अन्तर्मुहर्त्ताच्छादं करोति, एवमन्तर्मुहुर्तद्वयेन स्पृष्टमेकं, उत्कृष्टं त्रयाणामपि वृक्षकालेनानन्तेन निवृत्तं वृक्षकालिकम् // 169 // // 432 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy