________________ आवश्यक- निर्युक्तेरव नमस्कारनियुक्तिः नि० गा. 894-897 चूर्णिः // 392 // जीवाण जईणं पिव 3 अज्जीवाणं तु पडिमाणं 4 // 1 // जीवस्साजीवस्स य जइणो बिंबस्स चेगतो समयं 5 / जीवस्साजीवाण य जइणो पडिमाण चेगत्थं 6 // 2 // जीवाणमजीवस्स य जईण बिंबस्स चेगओ समयं 7 / जीवाणमजीवाण य जईण पडिमाण चेगत्थं 8 // 3 // 893 // कियच्चिरमसौ स्यादित्याहउवओग पडुचंतोमुहुत्त लद्धीइ होइ उ जहन्नो। उकोसठिइ छावहिसागरा (दा०५)ऽरिहाइ पंचविहो।८९४॥ उपयोगं प्रतीत्यान्तर्मुहूर्त स्थितिः जघन्यतः उत्कृष्टतश्च, क्षयोपशमस्य च जघन्या स्थितिरन्तर्मुहर्त एव, उत्कृष्टस्थितिलब्धेः षट्षष्टिसागरोपमाणि, एक जीवं प्रतीत्यैषा, नानाजीवान् पुनरधिकृत्योपयोगापेक्षया जघन्यत उत्कृष्टतश्चैषैव, लब्धितः सर्वकालं / कतिविधो वा इत्याह-अहंदादिपञ्चविधः॥ 894 // नवपदामाह संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च खित फुसैंणा य / कोलो अ अंतरं भाग भार्वं अप्पोबहुं चेव // 895 // सत्पदप्ररूपणा कार्या, नमस्कारो जीवद्रव्यादमिन्नोऽतो द्रव्यप्रमाणं वक्तव्यं, क्षेत्रमिति कियति क्षेत्रे नमस्कारः१, एवं स्पर्शना कालोऽन्तरं च वक्तव्यं, भाग इति नमस्कारवन्तः शेषजीवानां कतिथे भागे वर्तन्ते, भावेऽपि कस्मिन् ?, अल्पबहुत्वं | वक्तव्यं, प्राक्प्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकापेक्षया // 895 // आद्यद्वारमाह संतपयं पडिवन्ने पडिवजंते य मग्गणं गइसु / इंदिय का, वेएं जोऐ अकसायलेसास // 896 // सम्मत्त नाणं दसैंण संजय उवओगेओ अ आहारे / भासँग परिते पत्ति सुहुँमे सन्नी अभवै चरमैं // 897 // इदं गाथाद्वयं पीठिकायां व्याख्यातं // 896-897 // अनुक्तद्वारत्रयमाह // 392 //