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________________ आवश्यकनियुक्तरव // 379 // ***&XXXXXXXXXBIRद्र इय दुल्लहलंभं माणुसत्तणं पाविऊण जो जीवो। ण कुणइ पारत्तहियं सो सोयइ संकमणकाले // 836 // मानुषत्वपरत्र हितं - धर्म, 'सङ्क्रमणकाले' मरणकाले॥ 836 // दुलेभता सामायिकजइ वारिमज्झछूढोच गयवरो मच्छउव्व गलगहिओ। वग्गुरपडिउव्व मओ संवइओ जह व पक्खी // 837 // संवत-जालं इतः प्राप्तो यथा वा पक्षी // 837 // दुर्लभसो सोयइ मच्चुजरासमोच्छुओ तुरियणिद्दपक्खित्तो। तायारमविंदतो कम्मभरपणोल्लिओ जीवो // 838 // कारणानि च | नि० गा० सोऽकृतपुण्यः, समवसृतो (समास्तृतो) व्याप्तः, त्वरितनिद्राप्रक्षिप्तो, मरणनिद्रयाऽभिभूतः, अविन्दन् Kal836-841 अलभमानः // 838 // काऊणमणेगाइं जम्ममरणपरियणसयाई / दुक्खेण माणुसत्तं जइ लहइ जहिच्छया जीवो // 839 // दुःखेन मानुषत्वं लभते जीवः यदि यदृच्छया, कुशलपक्षकारी पुनः सुखेन मृत्वा सुखेनैव लभते // 839 // तं तह दुल्लहलंभं विज्जुलयाचंचलं माणुसत्तं / लभ्रूण जो पमायइ सो कापुरिसोन सप्पुरिसो॥८४०॥ मानुष्ये लब्धेऽपि एभिः कारणैर्दुर्लभं सामायिकमित्याहआलस्स मोहऽवण्णा थंभा कोहा पमाय किवगता। भयसोगा अण्णाणा वक्खेव कुतूहला रमणा // 841 // C // 379 // आलस्यान्न साधुसकाशं गच्छति शृणोति वा, मोहाद्गृहकर्त्तव्यतामूढो वा, अवज्ञातो वा किमेते जानन्तीति, स्तम्भाद्वा जात्याद्यभिमानात् , क्रोधाद्वा, साधुदर्शनादेव कुप्यति / प्रमादान्मद्यादिलक्षणात्, कृपणत्वादातव्यं किञ्चित् , भयान्नरकादि ला
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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