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________________ आवश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः // 366 // किं सामायिकमिति निरूपणे द्वारगाथाः नि० गा० 803-807 बहुशः सामायिकं कुर्यात्-मध्यस्थो भूयात् // 802 // सङ्केपेण सामायिकवतो मध्यस्थस्य लक्षणमाह जो णवि व रागे णवि दोसे दोण्ह मज्झयारंमि / सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सवे अमज्झत्था // 803 // क किं सामायिकमिति निरूपयन् द्वारगाथात्रयमाहखेत्तदिसाकालगइ भवियसण्णिऊसासदिहिमाहारे / पजत्तसुत्तजम्महितिवेयसण्णाकसायाऊ // 804 // णाणे जोगुवओगे सरीरसंठाणसंघयणमाणे / लेसा परिणामे वेयणा समुग्धाय कम्मे य // 805 // णिवेढणमुब्वट्टे आसवकरणे तहा अलंकारे / सयणासणठाणत्थे चंकम्मंते य किं कहियं // 806 // क्षेत्रदिक्कालगतिभव्यसंज्ञिउच्छासदृष्टिआहारकानङ्गीकृत्यालोचनीयं, किं क सामायिक इति योगः / तथा पर्याप्तसुप्तजन्मस्थितिवेदसंज्ञाकषायायूंषि च // 804 // तथा ज्ञानं योगोपयोगी शरीरसंस्थानसंहननमानानि लेश्याः परिणाम वेदनां समुद्घातं कर्म च // 805 // तथा निर्वेष्टनोद्वर्त्तने आश्रवकरणं तथा अलङ्कार तथा शयनासनस्थानस्थानधिकृत्य, तथा चङ्कमतश्च विषयीकृत्य किं सामायिक क्वेत्यालोचनीयं // 806 // तत्रोप्रलोकादिक्षेत्रमङ्गीकृत्य [ सम्यक्त्वादि-] सामायिकानां लाभादिभावमाह सम्मसुआणं लंभो उर्दु च अहे अ तिरिअलोए अ। विरई मणुस्सलोए विरयाविरई य तिरिएसुं॥ 807 // सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोर्लाभ ऊर्ध्वलोके मेरुसुरलोकादिषु ये सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते जीवास्तेषां श्रुताज्ञानमपि तदैव सम्यक्श्रुतं स्यात् , एवमधोलोकेऽपि महाविदेहाधोलौकिकग्रामेषु नरकेषु च ये प्रतिपद्यन्ते, एवं तिर्यग्लोकेऽपि / विरतिं 流来决的南流流滿南束河流來流來南流 // 366 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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