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________________ आवश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः // 348 // मूढनइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं / अपुहुत्ते समोयारो नत्थि पुहुत्ते समोयारो // 762 // मूढनयमेव मूढनयिकं श्रुतं, 'कालिकं तु न नयाः समवतरन्ति' अत्र प्रतिपदं न भण्यन्त इत्यर्थः। अपृथक्त्वं चरणधर्मसङ्ख्याद्रव्यानुयोगानां प्रतिसूत्रमविभागेन वर्त्तनं, तस्मिन्नयानां समवतारः, नास्ति पृथक्त्वे समवतारः, पुरुषविशेषापेक्षमवतार्यते // 762 // आह-कियन्तं कालमपृथक्त्वमासीत् ?, कुतो वा समारभ्य पृथक्त्वं जातं?, उच्यतेजावंति अन्जवइरा अपुहुत्तं कालियाणुओगस्स / तेणारेण पुहुत्तं कालियसुय दिविवाए य // 763 // यावदार्यवैरास्तावदपृथक्त्वं कालिकानुयोगस्यासीत् कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थ अन्यथा सर्वानुयोगस्यैवाऽपृथक्त्वमासीत् तत आरतः पृथक्त्वं कालिकश्रुते दृष्टिवादे च // 763 // अथ क एते आर्यवैराः?, तत्र स्तवद्वारेण तेषामुत्पत्तिमाहतुंबवणसंनिवेसाओ निग्गयं पिउसगासमल्लीणं / छम्मासियं छसु जयं माऊयसमन्नियं वंदे // 764 // पितुः सकाशमल्लीनं (मालीनं) पाण्मासिकं षट्सु जीवनिकायेषु यतं-प्रयत्नवन्तं मात्रा समन्वितं वन्दे // 764 // जो गुज्झएहिं बालो णिमंतिओ भोयणेण वासंते / णेच्छइ विणीयविणओ तं वइररिसिं णमंसामि // 765 // गुह्यकैर्देवैः वर्षति सति, पर्जन्ये इति गम्यते // 765 // उज्जेणीए जो जंभगेहि आणक्खिऊण थुयमहिओ / अक्खीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसियं वंदे // 766 // 'आणक्खिऊण'त्ति परीक्ष्य 'स्तुतमहितः तत्र स्तुतो वास्तवेन, महितो विद्यादानेन // 766 // जस्स अणुनाए वायगत्तणे दसपुरंमि नयरंमि / देवेहि कया महिमा पयाणुसारिं नमसामि // 767 // समवतारद्वारं अनुयोगापृथक्त्वपृथक्त्वं आर्यवज्रोत्पत्तिश्च नि० गा० 762-767 // 348 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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