________________ आवश्यकनिर्युक्तेरक चूर्णिः आर्यवनस्वामिवृत्तान्तः नि० गा० 768-773 * // 349 // * * * * K अनुज्ञाते 'वाचकत्वे' आचार्यत्वे देवैर्ज़म्भकैः // 767 // जो कनाइ धणेण य निमंतिओ जुव्वर्णमि गिहवइणा / नयरंमि कुसुमनामे तं वइररिसिं नमसामि // 768 // ___ 'गृहपतिना' धनेन 'कुसुमनाम्नि' पाटलिपुत्रे इत्यर्थः // 768 // जेणुद्धरिया विजा आगासगमा महापरिन्नाओ / वंदामि अजवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं // 769 // अन्येभ्योऽधिकृतविद्यायाञ्चानिषेधख्यापनाय प्रदाननिराचिकीर्षया तदनुवादस्तावदित्थमाहभणइ अ आहिंडिजा जंबुद्दीवं इमाइ विजाए / गंतुं च माणुसनगं विजाए एस मे विसओ॥ 770 // आहिण्डेत जम्बूद्वीपमनया विद्यया, तथा गत्वा च 'मानुषनगं' तिष्ठेदिति शेषः। विद्याया एप मे विषयो'गोचरः॥७७०॥ भणइ अ धारेअव्वा न हुदायव्वा इमा मए विजा / अप्पिट्ठिया उ मणुआ होहिंति अओ परं अन्ने // 771 // धारयितव्या प्रवचनोपकाराय, अल्पर्द्धय एव // 771 // माहेसरीउ सेसा पुरिअं नीआ हुआसणगिहाओ / गयणयलमइवइत्ता वइरेण महाणुभागेण // 772 // माहेश्वर्या नगर्याः, 'सेस'त्ति पुष्पसमुदायलक्षणा, सा पुरिका नगरी नीता हुताशनगृहाद्-व्यन्तरदेवकुलसमन्वितोघानात् , गगनतलमतिव्यतीत्य-अतीवोल्लङ्य // 772 // अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो। पुहत्ताणुओगकरणे ते अत्थ तओ उ बुच्छिन्ना // 773 // अपृथक्त्वे सति अनुयोगश्चत्वारि द्वाराणि-चरणधर्मकालद्रव्याख्यानि भाषते एकः, तेऽर्थाश्चरणादयस्तत एव पृथक्त्वा // 349 // मा०चू०३०