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________________ आवश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः &&&&&&&&XXXXX गणधरवक्तव्यता नि० गा. 590-595 // 309 // राजोपनीतसिंहासने उपविष्टो वा भगवत्पादपीठे // 589 // आह-स कथयन् कथं कथयति ?, उच्यतेसंखाईएविभवे साहइ जं वा परो उ पुच्छिज्जा / ण य णं अगाइसेसी विआणई एस छउमत्थो // 590 // 'साहइत्ति कथयति, न च नैव, णमिति वाक्यालङ्कारे अनतिशयी-अवध्यादिरहितो विजानाति यथैष छद्मस्थः, अशेषप्रश्नोत्तरप्रदानसमर्थत्वात् तस्य // 590 // एवं समवसरणवक्तव्यता सामान्येनोक्ता, अथ प्रकृतमुच्यते, तत्र भगवतः समवसरणे निष्पन्ने सति अत्रान्तरे तं दिव्वदेवघोसं सोऊणं माणुसा तहिं तुट्ठा / अहो जण्णिएणं जटुं देवा किर आगया इहइं // 591 // तत्र यज्ञपाटके, अहो ! विस्मये, याज्ञिकेनेष्टं, देवाः किलागता अत्र, किलः संशय एव, तेषामन्यत्र गमनात् // 591 // तत्र यज्ञपाटके एकादशापि गणधरा ऋत्विजः समन्वागता इत्याह चएक्कारसवि गणहरा सव्वे उण्णयविसालकुलवंसा / पावाए मज्झिमाए समोसढा जन्नवाडम्मि // 592 // पढमित्थ इंदभूई बिइओ पुण होइ अग्गिभूइत्ति / तइए य वाउभूई तओ वियत्ते सुहम्मे य॥५९३ // मंडियमोरियपुत्ते अकंपिए चेव अयलभाया य / मेयजे य पभासे गणहरा होंति वीरस्स // 594 // जं कारण णिक्खमणं वोच्छं एएसि आणुपुवीए। तित्थं च सुहम्माओ णिरवच्चा गणहरा सेसा // 595 // 'यत्कारणं' यन्निमित्तं निष्क्रमणं तद्वक्ष्ये, तथा तीर्थ च सुधर्मात्सञ्जातं // 595 // जीवादिसंशयापनोदनिमित्तं गणधरनिष्क्रमणमिति कृत्वा यो यस्य संशयस्तमाह // 309 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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